हिन्दी प्रदेशो के नौजवानो कब तक चुप रहोगे?

हिन्दी प्रदेशो के नौजवानो कब तक चुप रहोगे?
                             कृष्ण देव सिंह
              सत्ता का प्रथम कर्तव्य है -  हर एक नागरिक की सुरक्षा - शिक्षा - स्वास्थ्य।भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू सरकार ने सत्ता में आम अवाम की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से विश्वस्तरीय JNUकी स्थापना की थी। ताकि गरीब नागरिकों के मेधावी छात्र शिक्षित होकर सत्ता के विभिन्न विभागों में अधिकारी हिस्सेदारी पा सकें। किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए यह सराहनीय उद्देश्य है। संप्रति वर्तमान सरकार को पहले की सरकारों की यह शिक्षानीति रास नहीं आ रही है। गरीब नागरिकों को सत्ता से विलग करने की इस षडयंत्रकारी तथा विध्वंसकारी नीति का, प्रत्येक लोकतांत्रिक राजनीतिक दल को पुरजोर विरोध करना चाहिए।अब छात्रों की लड़ाई को उन्हीं तक सीमित नहीं रखा जा सकता ।विशेषकर हिन्दी प्रदेशों के अभिशप्त नौजवानों को जे एन यू से कुछ सीखना चाहिए व सोचना चाहिए कि वे क्या चुप ही रहेगें ? 
         जे एन यू को ख़त्म किया जा रहा है ताकि हिन्दी प्रदेशों के ग़रीब नौजवानों के बीच अच्छी यूनिवर्सिटी का सपना ख़त्म कर दिया जाए। सरकार को पता है। हिन्दी प्रदेशों के युवाओं की राजनीतिक समझ तृतीय श्रेणी का है। ऐसा नहीं.होता तो आज हिन्दी प्रदेशों में हर जगह एक जे एन यू के लिए आवाज़ उठ रही होती। ये वो नौजवान हैं जो अपने ज़िले की ख़त्म होती यूनिवर्सिटी के लिए लड़ नहीं सके। क़स्बों से लेकर राजधानी तक की यूनिवर्सिटी कबाड़ में बदल गई। कुछ जगहों पर युवाओं ने आवाज़ उठाई मगर बाक़ी नौजवान चुप रह गए। आज वही हो रहा है। जे एन यू ख़त्म हो रहा है और हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की अफ़ीम को राष्ट्रवाद समझ कर खाँस रहा है।
         जे एन यू के छात्र अपने वक्त में होने का फ़र्ज़ निभा रहे हैं। इतनी ताकतवर सरकार के सामने पुलिस की लाठियाँ खा रहे हैं।सस्ती शिक्षा माँग किसके लिए है ? इस सवाल का जवाब भी देना होगा तो हिन्दी प्रदेशों के सत्यानाश का एलान कर देना चाहिए। क़ायदे से हर युवा और माँ बाप को इसका समर्थन करना चाहिए मगर वो चुप हैं। पहले भी चुप थे जब राज्यों के कालेज ख़त्म किए जा रहे थे। आज भी चुप हैं।इन युवाओं को लाठियाँ खाता देख दिल भर आया है। ये अपना भविष्य दांव पर लगा कर आने वाली पीढ़ी का भविष्य बचा रहे हैं। कौन है जो इतना अधमरा हो चुका है।
          देश भर के कई राज्यों में कालेजों की फ़ीस बेतहाशा बढ़ी है और उसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन भी हो रहेहैं। प्राइवेट मेडिकल और आभियांत्रिकी महाविद्यालयों में बड़ी संख्या में पढ़ने वाले छात्र भी परेशान हैं। मगर सब किनारा कर ले रहे हैं क्यों ? क्या ये सबकी बात नहीं है ? क्या हिन्दी प्रदेशों के नौजवानों अभिशप्त ही रहे ? ये  कौन लोग है ?
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