कटघरे में पत्रकारिता और मीडियाकर्मी
कृब्ण देव सिंह
रायपुर ./इसमें कोई शक नही की भारतीय संचार माध्यम /मीडिया/पत्रकार जातिवादी कलंक से ग्रसित है और समाज के मनुबादी जातिवाद को ढकने के लिए हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत बढ़ाने में जुटा हुआहै, ताकि सामान्य जाति वर्ग का वर्चस्व बना रहे।लेकिन अब तक का अनुभव यही बता रहा है कि मीडिया पूर्णतः विकाऊ/ भक्त यादि विशिष्ठ् गुणों से पुरी तरह अभी गिरफ्त में नही आया है।वल्कि उसे अवसरवादी व्यवसायी कहना ज्यादा उपयुक्त है। परन्तु मध्यप्रदेश में स्वनाम जाति घर्म बाले नौकरशाह एस पी मिश्रा और उसके कुनबे का नाम हनी ट्रेक वाले मामले में उदघाटित हुआ है ,उससे संस्कारी समाज और शासकीय जनसम्पर्क विभाग की कलाई पुरी तरह न केवल खुल गई है वल्कि नौकरशाहों का सामुहिक चरित्र भी उजागर हो गया है।
वैसे आरक्षण विरोधी रोज नये- गये तर्क-कुतर्क करते ही रहते हैं परन्तु आरक्षण और विविधता न होने पर कैसे संस्थाएं सड़ जाती हैं, इसका सटीक उदाहरण भारतीय मीडिया है ।और यह तब है जबकि हिन्दुस्तान की95%समाचारपत्र/ टीवी चेनल के मालिक सामान्य वर्ग के है तथा उसमें कार्यरत पत्रकार/ लेखक/ ऐंकर का प्रतिशत भी 90%से अधिक है।फिर भी पत्रकारिता का पेशा आज गाली बन चुका है. वहां तो कोई आरक्षण नहीं है. फिर ऐसा क्यों हुआ?
जिस तरह से मध्यप्रदेश,राजस्थान और छत्तीसगढ़ ,में कांग्रेस की सरकार बनते ही पत्रकार पत्रकारिता छोड़कर उसके सलाहकार बन गए तो उससे इन प्रदेशों की पत्रकारिता पर सवाल यदि सवाल उठते है तो मुक्षे कोई आश्चर्य नही होगा। सरकारी महकमे की खामियों ,त्रुटियों ,अनियमितताओं के बारे में लिखना ही विपक्ष की पत्रकारिता नहीं होती है ।ये तो मात्र खबरनवीसी होती है और विपक्ष की पत्रकारिता का एक मामूली हिस्सा होती है ।सरकार की बेसमझदारी , दमनकारी नीतियों ,गैर जनकल्याणकारी योजनाओं का वैचारिक स्तर पर खुलासा करने को विरोध करना नही कहा जा सकता।खुलकर उसको जनता के सवालों के कठघरे में खड़ा करना मेरी नजर में विपक्ष की पत्रकारिता होती है पर विडम्बना यह है कि मीडिया से भी वैचारिकी का स्पेश ही खत्म होता जा रहा है ।
जो चीज खरीदी और बेची जाती हो वह व्यापार होता है और विडम्बना है कि मीडिया खबरों का और विज्ञापन करने के व्यापारी के अलावा और कुछ नही रह गया है। जो उसे राजस्व और चंदा देते हैं उसका हितकारी है ,।जो व्यापार का सामान्य परम्परा / नियम है।जिसने लोकतंत्र का चौथा खम्बा होने का मुखौटा चढ़ा रखा है ।पर सभी धान बाइस पसेरी कहना भी उचित नहीं है। इस क्षेत्र में अपवाद स्वरूप भी पत्रकार मिल जाएंगे जो अपने अपने स्तर पर पत्रकारिता की अलख जगाए हुए है ।यह अलख सोशलमीडिया पर अधिक देखने को मिलेगी, अखबार के पन्नो और टीवी के स्क्रीन पर इसे ढूंढना भूसे के ढेर में सुई तलाशना जैसा है ।
मध्यप्रदेश जिस्म फरोसी /हनीट्रैप के मामले मे जनसम्पर्क विभाग के प्रमुख सचिव व मप्र मध्यम के होल - सोल ढेकेदार एस पी मिश्रा अर्थात छोटु मिश्रा की संलग्नता उजागार होने से शासन के जनसम्पर्क विभाग की कार्यप्रणाली और छवि पर अनेक प्रश्न चिन्हों का लगना स्वाभाविक है।मामले की गंभीरता इसी से समक्षा जा सकता है कि इस मामले में भाजपा कांग्रेस को एक कर दिया है।स्थिति कितनी भयावह हो गई कि मध्यप्रदेश में अब भाजपा का टिकट कांग्रेसी को कांग्रेस का टिकट भाजपाई को दी जाने लगी ।
हलांकि भ्रष्ट अफसरों को सिस्टम से बाहर करने की ये पहल अच्छी है।लेकिन उनकी चरित्रहीनता भी उच्च शिखर पर स्थान पा रहा है। सत्ता और सत्ताधारी नेताओं के चाटुकार भ्रष्ट नौकरशाहऔर जुगाड़ू भ्रष्ट अफसर बचाने की कार्यवाही उच्च स्तर पर जारी रहने की जानकारी आने लगी है ।. कई नौकरशाह नेताओं के साथ मिल- बांटकर भी खाते हैं ,उनकी लिस्ट कौन बनाएगा ?फिर नौकरशाहों के तलबे चाटनेवाले दलाल से जनप्रतिनिधी/ मंत्री बने लोगों को अपनी औकात क्या पता नहीं है?और सिर्फ अफसर ही क्यों नेताओं की लिस्ट क्यों नहीं?राजनीतिक दलों में पल रहे दलाल, भ्रष्ट व चापलूस नेताओं पर कार्यवाही करने के बजाय उनपर लगाम लगाने की चर्चा भी क्या आज बेनामी नही हो गई है?फिर पत्रकारिताऔर पत्रकार से सत्यहारिश्रचन्द्र बनने की क्यों उम्मिद की जानी चाहिए?वो भी इसी भ्रष्ट्र व्यवस्था का अगर अंग बनता जा रहा है तो केवल मीडिया को दोषी क्यों समक्षा जाना चाहिए?
*बुघवार मल्टीमीडिया नेटवर्क
कटघरे में पत्रकारिता और मीडियाकर्मी