महाराष्ट्र की तर्ज पर नए राजनीतिक समीकरण बनेगें?

महाराष्ट्र की तर्ज पर नए राजनीतिक समीकरण बनेगें?
                 कृब्ण देव सिंह
महाराष्ट्र की राजनीतक उठापटक ने देश की राजनीति में नये राजनीतिक समीकरण बनने -विगड़ने  की संभावनाओं को बलबती कर दिया है ।इस संभावनाओं को कांग्रेस ने और बल प्रदान यह कहकर कर दिया कि  भाज़पा को रोकने के लिए भबिष्य में देश के अन्य राज्यों में भी महाराष्ट्र की तरह नए राजनीतिक समीकरण बन सकते है।हलांकि .राजनीतिक हल्कों में संभावना व्यक्त किया जा रहा था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा विरोधी मोर्चा का देर सवेर नेतृत्वकर्ता बन सकते हैं ।लेकिंन महाराष्ट्र की धटननाओं ने एनसीपी के नेता शरद पवार को ।झ्स दौड़ में श्री कुमार से बहुत आगे निकलते हुए अपनी ठोश दावेदारी प्रस्तुत कर दिया है।
     महाराष्ट्र में सत्ता के सिंहासन से फिसलने के बाद भाजपा के अन्दरखाने में उठने वाली राजनीतिक आहों और कराहों की अनुगूंज जल्दी ठंडी होने वाली नहीं है, क्योंकि इस घटनाक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की आत्म-मुग्धता का कवच तड़क गया है, जो उनके अजेय होने का  गरूर पैदा कर रहा .था। अजेय होने का गुरूर में उन्होंने देश के लोकतंत्र और संविधान के पन्नों पर निरंकुशता के नए-नए अफसाने लिख दिया है। हलांकि कहना मुश्किल है कि महाराष्ट्र की घटना से आहत भाजपा के सत्ताघीशों का आहत अहंकार भविष्य में प्रतिशोध और प्रतिघात की राजनीति की कौन सी शक्ल में सामने आएगाI अथवा अनुमान लगाना मुश्किल है। लेकिन फिलहाल तो एनसीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार एक ऐसे सितारे के रूप में उभरे हैं, जिसकी राजनीतिक शख्सियत का लोहा पूरा देश मान रहा है। समीक्षकों की नजर में पवार ने महाराष्ट्र में सत्ता की राजनीतिक शतरंज के खेल में देश के तथाकथित चाणक्य के रूप में प्रचारित केन्द्रीय गृहमंत्री और भाजपा अमित शाह को बुरी तरह मात दे दी है।
          भाजपा को नया लक्ष्य मिल गया है।जब तक शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन तोड़कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाने का फैसला नहीं किया था ,तब तक तो भाजपा को महाराष्ट्र में अपनी सरकार सुनिश्चित लग रही थी। उसे लग रहा था कि शिवसेना अपने वैचारिक दायरे को तोड़कर बाहर नहीं जाएगी।लेकिन शिवसेना ने भाजपा को इस मूर्छा से जगा दिया. अब भाजपा को एक बात समझ में आ गई होगी के आगे की राजनीतिक लड़ाई अब उसे अकेले लड़नी है. पंजाब में अकालियो के साथ गठबंधन को छोड़कर अब भाजपा को भारत में आगे की राजनीति अपने दम पर करनी पड़ेगी, क्योंकि अब आगे का दौर भाजपा बनाम अन्य सब होगा. यह ठीक वैसे ही होगा जैसे कॉन्ग्रेस के विरोध में अलग अलग  किस्म के दल और नेता जुटा करते थे,  जो वास्तव में परस्पर विरोधी होते थे।इसका किसी विचारधारा या सिद्धांत से कोई लेना देना नहीं है। जब किसी एक दल के हाथ में सत्ता केंद्रित होती दिखाई देती है, तब अलग-अलग छोटे बड़े हित समूह सत्ता के विरोध में एकत्र होने लगते हैं।र्तें
 हलांकि उनमें आपस में कोई समानता नहीं होती।
       देशभर में भाजपा के समर्थक वर्ग को बड़ा झटका लगा है।उनको मिले जनमत को अपनी मुर्खता से खो दिया है।और वे अब अगर कुछ सोच रहे हैं तो यही कि भाजपा को महाराष्ट्र में शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी को अगले चुनाव में उखाड़ फेंकना चाहिए। इसी तरह के लक्ष्य दूसरे राज्यों में भी उसके सामने होंगे। अब वे शिवसेना जैसे किसी दूसरे  सहयोगी पर भरोसा नहीं करना चाहेंगे। भाजपा और कांग्रेस दोनों  की समस्या यह है कि राज्यों में वह दमदार नेतृत्व विकसित नहीं कर पा रही है।जो कई बड़े नाम हैं वह लंबे समय तक सत्ता में रह चुके हैं। कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने के लिए पार्टी को अब नए और जोशीले नेताओं की  खेप तैयार करनी पड़ेगी। अगर भाजपा दक्षिण के राज्यों में भी अपनी उपस्थिति बनाना चाहती है और भविष्य में स्थिर राजनीतिक ताकत बनना है, तो उसे दूसरे कई ऊर्जावान नेता तैयार करने पड़ेंगे।
             अस्सी साल के दमदार मराठा नेता शरद पवार के हाथों भाजपा की हार से उपजी लहरें सिर्फ महाराष्ट्र की  सीमाओं  से टकरा कर गुम होने वाली नहीं हैं। ये लहरें देश की राजनीतिक-रवानी को नया गति देने वाली लहरें सिध्द होंगी, क्योंकि राजनीति और सत्ता के गलियारों में व्याप्त यह भ्रम भी खंडित हुआ है कि अमित शाह की निरंकुश सत्ता की राजनीति का जवाब नहीं दिया जा सकता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की चिंता का एक कारण यह भी है कि महाराष्ट्र की राजनीतिक घटना के बाद अब देश के अन्य प्रदेशों के क्षेत्रीय क्षत्रपों के तेवरों को संभालना आसान नहीं होगा।स्मरणरहे कि  मोदीजी ने अपने कार्यकाल में एनडीए के सहयोगी दलों को कमतर आंकते हुए, हमेशा उनके साथ रूखा व्यवहार किया है।
        महाराष्ट्र में शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार देश की राजनीति में नए आयाम जोड़ने वाली है। देश की औद्योगिक-राजधानी के सूत्र गैर-भाजपाई दलों के हाथों में आने के राजनीतिक-निहितार्थ किसी से छिपे नहीं हैं। अमित शाह ने अपने विरोधी दलों के आर्थिक-सामाजिक स्त्रोतों को जाम करने का काम योजनाबध्द तरीके से किया है। भले ही आंशिक हो, लेकिन अब यह रुकावट अपेक्षाकृत कम होगी, क्योंकि कार्पोरेट-जगत में यह धारणा भी बलवती होगी कि भाजपा पूरी तरह अपराजेय नही है। उसे भी परास्त किया जा सकता है।
      भारतीय राजनीति में किसी समय नरेन्द्र मोदी के मुकाबले खड़े होने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीतिक गुमशुदगी और गफलत के बाद शरद पवार विपक्षी राजनीति के ध्रुवीकरण की धुरी बन सकते हैं। शरद पवार में यह कूबत है कि वो क्षेत्रीय दलों के साथ ही कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित और नियोजित कर सकते हैं। हलांकि श्री पवार के रास्ते में उनका स्वास्थ और देश की अन्य प्रदेशों में उनकी जमीनी राजनीतिक पकड़ की सुन्यता के आड़े आने की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता।भाजपा विरोधी दलों के सामने ज्यादा विकल्प भी नहीं हैं। जमीनी हकीकत से लेकर सत्ता के गलियारों तक पसरी उनकी राजनीतिक यात्रा के अनुभव की बानगी लोग महाराष्ट्र में देख चुके हैं। उनका यह अनुभव विश्वास जगाता है कि वो देश में विपक्ष की राजनीति को सार्थक आकार दे सकते हैं। क्योकि सत्ता-पक्ष की निरंकुशता और निर्ममता के खिलाफ लामबंद होना देश की पहली राजनीतिक जरूरत है।महाराष्ट्र की ताजा घटनाओं में उनका यह अनुभव देश के सामने आ चुका है। 
       महाराष्ट्र की घटनाक्रमों के बाद अब आम जनता और राजनीतिक समीक्षकों का ध्यान क्षारखण्ड में जारी विधान सभा चुनावों पर आकर टिक गया है। क्षारखण्ड में भाजपा के साथी गठबन्धन से अलग होकर स्वतंत्र रूप से अलग -अलग चुनाव लड़ रहें जबकि काग्रेस अपने गठबन्धन में मोर्चा संभाले हुए हैा जदयू भी चुनाव में अपना क्षण्डा लेकर मोर्चा परहै । स्पष्ट है कि क्षारखण्ड विघान सभा चुनाव परिणाम भी राब्ट्रीय राजनीत का प्रभावित करेगा । संभावना है कि बिहार के मख्यमंत्री नीतीश कुमार का पहला लक्ष्य एक वर्ष बाद होने जाविधान सभा चुनावों को जीतने का है।संभवतः झ्सीलिए वे किसी तरह का राजनीतिक जोखिम नहीं उठाना चाहते हों।
  महाराष्ट्र में भाजपा और विपक्षी दलों के सत्ता-संघर्ष के बाद देश की राजनीति में नई राजनैतिक गठजोड के आकार लेने की संभावनाये प्रतीत हो रही है। क्योंकि राजनीतिक दलों की विचारधारा अब हाशिए पर चली गई । सत्ता की इस लड़ाई में राजनीति का जो चेहरा सामने आया, वह भारत जैसे लोकतांग्त्रिक देश के लिए कितना सार्थक सिद्ध होगा,कहना मुश्किल है क्योकि वह विचलित करने वाला है। विचार-धारा को लेकर सवाल उठाने का नैतिक अधिकार किसी भी पार्टी के पास नहीं बचा है। हलांकि इसके लिए सबसे ज्यादा फफोले भाजपा के चेहरे पर नजर आ रहे हैं। महाराष्ट्र सरकार  पर सियासी-सवाल उठाने का नैतिक अधिकार भी किसी के पास नहीं है। रीति-नीति और नैतिकता के मद्देनजर भाजपा की जमीन में इतनी दीमक लग चुकी है कि विश्वास की कोपलें फूटना आसान नहीं है। त्रासदी यह है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व गृहमंत्री से लेकर राज्यपाल तक, संविधान के सभी पहरेदारों ने लोकतंत्र को खाक में मिलाने वाले इस गुनाह में बराबर के भागीदार हैं। ये परिस्थितियां अभूतपूर्व हैं। इनसे निजात पाने के लिए राजनीति में नई शुरुआत की जरूरत है। महाराष्ट्र-प्रकरण में सत्ता का नंगा नाच देखने के बाद देश के वर्तमान राजनीतिक-तस्वीर को लेकर क्या कोई सार्थक बहस/ संभावनायें आकार लेगी अथवा भारतीय संविधान का इसी तरह चीरहरण, सत्ता की अंधेरगर्दी के साथ यूं ही चलती रहेगी?
*बुघवार मल्टीमीडिया न्यूज् नेटवर्क
भोपाा