वादे पुरा करने  में गुज़रा बघेल सरकार का पहला वर्ष

वादे पुरा करने  में गुज़रा बघेल सरकार का पहला वर्ष


कृब्ण देव सिंह


 रायपुर ।किसी भी सरकार के लिए एक वर्ष और इसी तरह बढ़ते-बढते पाँच वर्ष पूर्ण होने पर  उसके क्रिया-कलापों का आकलन करने की एक परम्परा है। जो बहुत महत्व रखते  हैं क्योंकि एक वर्ष पूर्ण होने पर अंदाज हो जाता है कि सरकार किस तरह की पटरी पर दौड़ रही है और उसकी गति व दिशा क्या है। छत्तीसगढ की कांग्रेस सरकार को इसी दिसंबर में एक साल पूर्ण हो गए है। इस अवधि में से लोकसभा चुनाव व नगरीय निकायों के चुनाव की तैयारियों के पाँच महीनों को निकाल दिया जाए तो सरकार के पास सात माह ही बचते हैं जो वास्तविक कामकाज के महीने हैं। इन 7 महीनों में सरकार का कामकाज प्रेक्षकों के अनुसार सामान्य लेकिन उम्मीदों भरा ,माना जा रहा है। इस दौरान सरकार का ध्यान पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में जनता से किए गए वायदों पर केन्द्रित रहा और उनमें से काफी कुछ पर सिद्धान्त रूप से अमल किया जा चुका है। लेकिन विभिन्न कारणों से जिनमें राजनीतिक व प्रशासनिक प्रमुख है, वैसी गति नहीं पकड़ सकी है जिससे सुखद हवा का अहसास हो। किंतु सरकार और प्रमुख सचिव के प्रयासों से अहसास होने लगा है कि चाल तेज़ करने की कोशिश हो रही है। संभव है कि नगरीय निकाय तथा ग्राम पंचायत के चुनावों में अपेक्षित सफलता मिलने के वाद सरकार तेज गति से चलने लगे।
            बघेल सरकार को विरासत में गंभीर समस्याओं का अंबार मिला जिनसे उबरना आसान नहीं है और इसमें समय लगना स्वाभाविक है। इसलिए तुरन्त नतीजे  मिलने की अम्मिद नही ह्रै पर यह राज्य सरकार और कार्यपालिका की इच्छा शक्ति पर निर्भर है कि भविष्य की कैसी कार्यप्रणाली अपनाती है। 17 दिसंबर 2018 को भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस ने सत्ता सँभाली और  15 साल पुरानी भाजपा सरकार का अंत हुआ। भाजपा सरकार ने अपने कार्यकाल में भौतिक संरचनाओं के विकास पर भी काम किया और शहरी जीवन को कुछ हद तक सुविधाजनक बनाया लेकिन ख़ज़ाना ख़ाली कर दिया । काम हुआ तो भ्रष्टाचार भी जमकर हुआ। बल्कि यह कहा जा सकता है कि विकास योजनाओं के जरिए पैसे बनाने की नीयत से अरबों-ख़रबों के काम निकाले गए जिनकी गुणवत्ता प्रश्नांकित है। भ्रष्टाचार के बाद दूसरी बडी समस्या प्रशासनिक अराजकता की रही है और यह तय है कि कोई भी सरकार अपनी जनकल्याणकारी योजनाओं को सफलतापूर्वक तभी लागू कर सकती है जब उसे नीचे से लेकर उपर तक प्रशासनिक अमले का साथ मिले। भूपेश बघेल सरकार ने प्रारंभ में अपना प्रभाव कायम करने व नौकरशाही को कड़ा संदेश देने के लिए ताबड़तोड़ कार्रवाई की । उसने लगभग समूची सरकारी मशीनरी में फेरबदल कर दिया। थोक में बेमौसम तबादले , पैसों का लेनदेन व अव्यवहारिक पदस्थापनाओं. की वजह से हलांकि उसकी किरकिरी भी हुई । लेकिन अब शायद सरकार की समझ में आ जावे कि चले हुए कारतुसों को बदलना ही उचित रहेगा, लिहाजा आवश्यकतानुसार धमकाकर -पुचकारकर शासन -प्रशासन के नुमाइंदों को साधने का प्रयत्न करे।उसकी कोशिश हो कि  लोककल्याणकारी योजनाओं का लाभ आख़री छोर पर बैठे व्यक्ति तक पहुँचे ।इसलिए कार्य संस्कृति में परिवर्तन किया गया है जिसकी वजह से सत्ता और संगठन के बीच बेहतर तालमेल व परस्पर विश्वास का वातावरण बने।
         सरकार के प्रयासों को इस रूप में भी देखा जा सकता है किवित्तीय अनुशासन के साथ-साथ  वातानुकूलित कक्षों में बैठकर गुणा-भाग करने वाले अफसर ज़मीनी हक़ीक़तों से रूबरू होने बाहर निकल पड़े हैं। वे स्कूटर - मोटर साइकिलों पर कार्यस्थलों का जायज़ा ले रहे हैं। पहल नवनियुक्त मुख्य सचिव आर पी मंडल ने की जो नौकरशाही के लिए प्रेरणास्पद माने जाते है। ऐसा पहली बार देखा गया कि राजधानी में राज्य का सर्वोच्च अधिकारी सुबह -सुबह कार छोड़कर स्कूटर से विकास कार्यों का  निरीक्षण करने पहुँच जाए ।इन दिनों सबसे महत्वपूर्ण कार्य , किसानों से धान ख़रीदी के कामकाज का अवलोकन करने कृषि उपज मंडियों का दौरा करे। इससे यह संकेत जरूर मिलता है कि शासन -प्रशासन में अब कसावट आ रही है जिससे उम्मीद कर सकते हैं कि आम जनता के काम तयशुदा समय पर होंगे।पिछले पन्द्रह वर्षों की भाजपा सरकार से भरपुर उपकृत अधिकारी और कर्मचारियों पर यदि पैनी निगाह नही रखी गई तो वे कभी भी भुपेश सरकार को गच्चा देने में पीछे नहीं रहने वाले हैं। क्योंकि उनमें से अधिकांश का सम्बन्ध भाजपा की मातृसंगठन राब्ट्रीय स्वंम सेवक संघ से है ।सरकार के लिए चिंता का विषय वो  भी हो सकते हैं जिन्हें अक्सर फुल छाप कांग्रेसी और अब कुछ नये किश्म के लोगों को पंजा छाप भाजपाई कहा जाने लगा है। 
                  सरकार बेरोज़गारी और उद्योग जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे जो लगभग अछूते हैं पर नगरीय निकाय और नगरपंचायत के चुनाव के वाद शायद अपना ध्यान केंद्रित कर सकेगी। चुनावी घोषणापत्र के बचे मुददों ५ आवश्यक पहल भुपेश सरकार करना चाहेगा क्योंकि  चुनाव के वक्त सभी वादों की पुरा करने की घोषणा कांग्रेस पार्टी ने की है। इसके लिए बघेल सरकार के पास अभी चार वर्ष है। इस दैरान अनेक जनहित के कार्यो और नीतियों के क्रियान्वयन देखने और सुनने को मिल सकती है।


        इसमें को३ि शक नही कि कांग्रेस सरकार ने सत्ता संभालते ही छोटे-बडे निर्णय फटाफट ले लिए।जैसे किसानों की क़र्ज़ माफ़ी, छोटे भूखंडों की रजिस्ट्री को अनुमति , नक्सली होने के आरोप में वर्षों से जेलों में बंद आदिवासियों के मामलों पर पुनर्विचार, लोहांडीगुडा बस्तर  में टाटा द्वारा अधिग्रहीत भूमि को आदिवासियों को लौटाना, बिजली उपभोक्ताअों को राहत , अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़ों को आरक्षण में वृद्धि , नई स्वास्थ्य नीति , कुपोषण के ख़िलाफ़ महाअभियान जैसे आम जनता  से जुड़े कई फैसले जो  आम जनता को प्रभावित करते हैं और सरकार पर विश्वास जगाते हैं। निर्णय तो हुए किंतु उन पर अमल की रफ़्तार का तेज करने की आवश्कता है। क़र्ज़ माफ़ हुआ लेकिन  वायदों के मुताबिक़ काम नहीं होने से किसानों की शिकायतें बनी हुई हैं और वे अब भी आंदोलित है। इस समय धान ख़रीदी सबसे बडा मुद्दा है। एक तो ख़रीदी लेट शुरू हुई और प्रारंभ में प्रति एकड ख़रीदी की सीमा तय होने से व्यापक विरोध हुआ परिणामत: मुख्यमंत्री को कहना पड़ा कि उपार्जित पूरा धान क्रय किया जाएगा। दरअसल सरकार किसानों के सवालों को सुस्पष्ट तरीक़े से हेंडिल नहीं कर पा रही है जबकि इसी मुद्दे पर कांग्रेस को भारी समर्थन मिला व उसने 15 वर्षों से सत्ता पर क़ाबिज़ भाजपा को बाहर का रास्ता दिखाया। चुनावी वायदे के मुताबिक़ किसानों को 2500 रूपए प्रति क्विंटल का भुगतान करने उसे केन्द्र सरकार से मदद की दरकार थी और उसे उम्मीद थी कि वह सेंट्रल पूल में अतिरिक्त चावल लेने के अनुरोध को स्वीकार करेगी लेकिन केन्द्र के इंकार के बाद बघेल सरकार ने राजनीतिक कारणों से टकराव का रास्ता अपनाना राज्य के हित में नहीं है। प्रदेश के बाहर के बिजली संयंत्रों को कोयले की निकासी रोकने की चेतावनी व बीस हज़ार कार्यकर्ताओं के साथ दिल्ली में कूच की चेतावनी जैसे कदम से टकराव बढेगा। क्योंकि केन्द्र से टकराने का अंजाम क्या होता है उसका बडा उदाहरण दिल्ली की केजरीवाल सरकार है जिसे तीन साल तक जूझने के बाद आख़िरकार हथियार डालने पड़े। अत: राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को परे रखकर बघेल सरकार को भी कुछ ऐसा करना होगा ताकि केन्द्र सरकार खुले मन से राज्य की मदद के लिए आगे आए। यह अच्छी बात है कि राज्यपाल सुश्री अनुसूईया उइके इस मामले  में राज्य सरकार को सहयोग कर रही है और उन्होने भी धान के विषय में केन्द्र को पत्र लिखा है। लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी सरकार के अड़ियल रूख को देखते हुए बघेल सरकार को अपना इंतज़ाम खुद कर लिया है। फिलहाल वह किसानों से समर्थन मूल्य 1835 रूपए  में धान ख़रीद रही है । अंतर की शेष राशि 665 रूपये अलग से देने का वायदा किया है और इसके लिए प्रक्रिया तय करने  समिति गठित की है। धान ख़रीदी की प्रक्रिया आगामी फ़रवरी तक चलने वाली है। यानी सरकार के पास इंतज़ाम के लिए वक्त है। पर यदि वायदे के अनुसार सम्पूर्ण राशि 2500 का तुरंत भुगतान होता तो बात कुछ और होती। इससे किसानों के मन में सरकार के प्रति विश्वास व संतोष का भाव और बढ़ता।
             मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सांस्कृतिक मोर्चे पर अपूर्व सहजता व सरलता दिखाकर परम्परागत  तौर-तरीक़ों से स्वयं को मूल छत्तीसगढ़िया सिद्ध करने की कोशिश की है जिसमें उन्हें आशातीतकामयाब मिली है।फिलहाल राजनीतिक मोर्चे पर  उन्हें किसी तरह की  चुनौती नहीं है। न विधान सभा के भीतर न बाहर ।लेकिन अन्दरखाने अबकहीं कहीं से दवी आहें की अफवाहें सुनने को जरूर मिलने लगी है।  विधान सभा तो ख़ैर ठीक है लेकिन प्रदेश भाजपा जिस स्थिति में नज़र आ रही है उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि 15 वर्षों तक सत्ता का सुख भोगने के बाद वह विपक्ष की भूमिका में ढाल नहीं पाई है। वैसे भी इसी 24 दिसंबर को नगर निकाय व नगर पंचायतों के चुनाव के नतीजे इस बात की पुष्टि करेंगे कि एक साल में भाजपा की स्थिति कितनी सुधरी या वह और कमज़ोर हुई। यह भी जाहिर होगा कि कांग्रेस मतदाताओं के भरोसे को किस हद तक कायम रख पाई या भाजपा ने उसे कितनी चोट पहुँचाई अथवा उसका जनाधार कितना कमज़ोर किया।इस चुनाव में यह भी बहुतकुछ तय हो जावेगा कि भुपेश बघेल को उनके अब तक के निज समर्थकों से कितना जमीनी राजनैतिक और सामाजिक बल मिल सकता है ताकि वे आगे का रास्ता तय कर सके ।
**बुघवार मल्टीमीडिया नेटवर्क