बिहार में भी राजग को लग सकता है झटका?

बिहार में भी राजग को लग सकता है झटका?
              कृष्ण देव सिंह
   क्या झारखंड के बाद बिहार में भी राजग को झटका लग सकता है?क्या झारखंड की तरह ही इस  राज्य में भी लोगों में सत्ता के खिलाफ नाराजगी है?क्या कानून-व्यवस्था का लगातार बिगड़ता जाना, सड़कों की जर्जर स्थिति, महंगाई, बेरोजगारी, बैंकों में जमा राशि के ब्याज दर में कमी और जमा राशि की सुरक्षा को लेकर भय के माहौल से लोगों में सरकार के प्रति असंतोष है?क्या इसका कुपरिणाम भाजपा के समर्थक मतदाताओं में मतदान के दौरान उदासीनता के रूप में भी सामने आ सकता है?क्या दूसरी ओर नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी और एनपीआर को लेकर भाजपा विरोधी मतों में आक्रामक ध्रुवीकरण दिख रहा है?क्या ऐसे में  भाजपा और जदयू की सीटों में उल्लेखनीय कमी आ सकता है?ऐसे अनेक प्रश्न राजनैतिक,सामाजिक एंव प्रशासनिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है।माना जाता है कि राजग के पक्ष में मजबूत बात  यह है कि झारखंड में जहां झारखंड मुक्ति मोर्चा और उसके नेता हेमंत सोरेन विकल्प के रूप में मौजूद थे, वहीं बिहार में विपक्ष अभी बिखरा हुआ है। नेतृत्व के नाम पर  कोई मजबूत और भरोसेमंद चेहरा नहीं दिख रहा है।जवकि भाजपा ने घोषणा कर दी है कि बिहार विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ही नेतृत्व में लड़ा जावेगा 1
       विधानसभा चुनाव होने में समय है और इस दौरान नए समीकरण बन सकते हैं। लेकिन अभी की स्थिति में यह कहने में मुझे तनिक भी हिचकिचाहट नहीं कि राज्य में राजग की लोकप्रियता में  कमी आई है। कभी सुशासन बाबू के नाम से लोकप्रिय नीतीश कुमार और उनकी सरकार के प्रति लोगों में असंतोष है। नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी और एनपीआर को लेकर हो रहे विवाद से मुस्लिम वोटर  खिलाफ जा सकते है। हालांकि नेतृत्व के रूप में निश्चिय ही बिहार में अभी नीतीश कुमार के स्तर का कोई दुसरा चेहरा सामने नहीं है लेकिन सिर्फ उसी भरोसे चुनावी वैतरणी पार करना संभव नहीं होगा। राजग की सबसे बड़ी चुनौती उदासीन मतदाताओं में भरोसा जगाकर उन्हें अपने पक्ष में फिर से सक्रिय करना है। राजग की समस्या संगठन और गठबंधन में एकता की कमी भी है। खासकर भाजपा में अंतर्विरोध के साथ ही सबको साथ लेकर चल सकने वाले नेतृत्व की कमी महसूस की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर में दो लोकसभा चुनावों में यह कमी भले प्रभावित नहीं कर पाई हो लेकिनविधानसभा चुनाव में इसके कुप्रभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी उसकी झलक दिखी थी। ऐसे में विपक्ष एकजुट हुआ तो उसका मुकाबला करना संघर्षपूर्ण  होगा। 
        विपक्ष के समक्ष भी बड़ी चुनौती है, उससे पार पाए बिना उसके लिए सत्ता तक पहुंचना संभव नहीं है। कांग्रेस अपना मुख्य जनाधार खो चुकी है। राज्य में उसका कोई भी नेता सबको साथ लेकर चलने की क्षमता नहीं रखता है। राज्य में कांग्रेस की आस कुछ समर्पित मतदाताओं के साथ राजग से नाराज मतदाताओं, खासकर मुस्लिम वोटरों पर टिकी है। सीएए, एनआरसी और एनपीआर के मुखर विरोध के कारण राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने सालों पहले खिसके मुस्लिम वोटों को फिर अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कीहै। इसका चुनाव में उसे शायद फायदा मिलेगा।वैसे यह वोटर कभी भी खुलकर भाजपा के समर्थन में नहीं थे। विपक्षी महागठबंधन में राजद प्रमुख लालू यादव की अनुपस्थिति में विपक्ष के पास कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। तेजस्वी यादव को चेहरा बनाने की कोशिश की गई है लेकिन उनमें अभी परिपक्वता का भारी अभाव है। उनके और राजद के  भक्त भले ही उनमें नेतृत्व के सारे गुण देख रहे हों लेकिन महागठबंधन में ही उनके नेतृत्व क्षमता को लेकर संशय है। विपक्ष को बहुमत मिलने के बाद भविष्य में उन्हें नेता घोषित कर कमान दे दी जाए तो अलग बात है, फिलहाल मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर उनके नाम पर सत्ता हासिल करना कठिन है। तेजस्वी बीच-बीच में लगातार अपरिपक्व बयानबाजी करते रहते हैं जो उन्हें चुनाव में सर्वमान्य चेहरा बनने से रोकता है। महागठबंधन को इस समस्या से पार पाना ही होगा। 
         विपक्ष के समक्ष एक बड़ी चुनौती राजग से असंतुष्ट मतदाताओं को अपने पक्ष में लाना भी है। फिलहाल ऐसे अधिकतर मतदाता उदासीन बने हुए हैं। वे राजग से निराश तो हैं लेकिन उन्हें विकल्प नहीं दिख रहा है। विपक्ष यदि उनमें अपने प्रति भरोसा जगा सका तो वे वोट उसे मिल सकते हैं लेकिन यह आसान नहीं है। नेतृत्व में परिपक्वता की कमी के कारण हाल में हुए विपक्ष के बिहार बंद के दौरान जिस तरह की अगंभीर बयानबाजी सामने आई और बंद समर्थकों ने जैसी गुंडागर्दी की, उससे बंद को सफल बनाने में तो सफलता मिल गई लेकिन इससे उदासीन मतदाताओं के मन में विपक्ष के प्रति भय और अविश्वास का माहौल बन गया है। बातों में आक्रामकता तो ठीक लेकिन जब उसका असर आमलोगों के जीवन पर नकारात्मक रूप से पड़े तो ऐसा व्यक्ति बिहार जैसे बड़े और विविधता वाले राज्य का सर्वमान्य नेता नहीं बन सकता है। राजद सरकार की छवि पहले भी कानून-व्यवस्था और शिक्षा को बदतर बनाने के मामले में काफी नकारात्मक रही है। उसके लिए अपनी उस छवि को तोड़कर बाहर निकलना बहुत जरूरी है। वक्त की गर्द से वह थोड़ी धूमिल तो हुई लेकिन पहले जदयू-राजद शासनकाल की अव्यवस्था और अब बंदी में हिंसा ने उसकी पुरानी छवि की याद फिर ताजा कर दी है। 
 लालू यादव:नायक या खलनायक?
             तमाम भारतीय राजनीतिक नेताओं की तरह लालू यादव में भी अपनी खामियाँ और अच्छाइयाँ हैं। 
लेकिन एक बात तो तय है कि नब्बे के दशक के बाद भारतीय राजनीति को लालू यादव के बिना नहीं देखा जा सकता है।लालू के उदय के बाद, पिछड़े और विशेषकर यदुवंशी समाज जमकर अंगड़ाई लेने लगा। उस काल में लालू यादव का अचानक से उदय होने का जबरदस्त प्रभाव यादव और मुस्लिम समाज पर पड़ा। एक तरफ वो समाज था जो सदियों से वर्चस्वशाली कहलाने और दिखने का आदि हो गया था। वहीं दूसरी और वो समाज था जिसे कथित तौर. से सदियों से दबाया गया था।
 बस यहीं से शुरू हो गया जातीय संघर्ष का दौर। इस संघर्ष में उच्च जाति के लोग अपने आन-बान-शान बचाने में लग गए। इस यादवी सामाजिक न्याय के संघर्ष में बेतहाशा अन्याय  हुआ जिसका जबरदस्त शिकार भूमिहार के साथ-साथ कुर्मी और कोयरी जाति के लोग हुए।इस जिम्मेदारी को लालू यादव को समझना चाहिए था लेकिन, उन्हेंने इसे नहीं समझा। चाहे यह उनकी मजबूरियां रही हो या फिर राजनीतिक करने का तरीका।  पर इस जिम्मेदारी से लालू यादव को मुक्त नहीं किया जा सकता है।
               सवर्णों के खलनायक
      जब लालू यादव ने 'भुराबाल साफ करो' का नारा दिया।तब वे राजनीतिक में अपना पैठ बनाने में जुटे थे। पिछड़ों के प्रति अगड़ों का शोषण का रवैया जग जाहिर था। पिछड़ों में भी अगड़ों के प्रति गुस्सा और बदले की भावना स्वभाविक था। इस हालत में लालू यादव को सामने से आकर चुनैती देना। सबसे ज्यादा फायदेमंद मन्द लगा। बस फिर क्या था उन्होंने खुले मंच से 'भुराबाल साफ करो' का नारा दे डाला। इसका प्रभाव बिहार की  राजनीति पर क्या पड़ा ये तो जग जाहिर है। लेकिन लालू यादव सवर्णों के खलनायक बन गए।
         घोर जातिवादी लालू 
      भारतीय समाज में जाति एक हकीकत है। इनमें से भी दलित पिछड़े बहुसंख्यक है। इस स्थियी में लालू यादव के लिए जातिगत राजनीति को हवा देना खाली मैदान जैसा लगा। कुर्मी और कोइरी को छोड़कर अन्य यादव समर्थकपिछड़े जातियों के सामाजिक स्तर में सुधार भी आया। लेकिन इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि जातिगत दूरियाँ, जातिगत संघर्ष में बदल गया ।फिर क्या था| कानुन और व्यवस्था नामक कोई चीज नहीं रही| स्वंम लालू यादव चारा घोटाला में दोषी करार दिये गये। परिवारवाद ने रही सही राजनैतिक साख पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया सो अलग | इन हालातों में विधान सभा चुनाव में महागठबन्धन सत्ताघारी गठबन्धन का कैसे मुकावला करती है,देखना दिलचस्प होगा?
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