लेफ्ट राइट के चक्कर में निपट न जायें नीतीश कुमार?

लेफ्ट राइट के चक्कर में निपट न जायें नीतीश कुमार?


कृष्ण देव सिंह्
             पटना।वर्तमान परिदृश्य, परिस्थिति, परिवेश और परिलक्षित संभावनाओं के मंथन पर यही माना जा रहा है कि बिहार के विकास के लिए यही जोड़ी उपयुक्त है। पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीति को समक्षने वालो के अनुसार और उनके अन्दरखाने के सिपहसलारों की गतिविधियें चुगली कर रही है कि श्री कुमार नो राइट और नो लेफ्ट की चक्कर में है ।परन्तु जिस तेजी से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष  राहुल गाँधी वापस आने के संकेत देते दिख रहें हैं उससे तो यही लगता है कि नीतीश जी के लिये अंगुर खट्टे न हो जावे ?


नीतीश जहाँ सबके विकास और सबके उत्थान को संकल्पित एक ऐसे राजनेता है जो किसी कीमत पर बिहार के हितों से समझौते को तैयार नही होंगे वहीं सुशील मोदी भी अनावश्यक पचड़ों और विभाजनकारी राजनीति से दूर विकास आधारित और भ्रष्टाचार विरोध की राजनीति करते है ।कहा तो यहाँ तक जाता है कि
नीतीश जी किसान, अल्पसंख्यक,  महादलित एवम पिछडो के मुद्दों पर कोई समझौता नही करते ।लेकिन अपने कुटिल राजनीतिक दाव- पेचों से इन्हीं वर्गो के नेतृत्व को अपने सामने बौना बनाने की कला में उन्हें महारथ हासिल है। कहने को तो जब भी उद्द्योग और किसान के बीच विकल्प चुनना होता है, मुख्यमंत्री ने किसानों को तरजीह दी है ,ताकि उनके षडयंत्रों पर पर्दा डाला जा सके । यही नीतीश जी का बिहार के विकास का मॉडल कृषि और सामाजिक समरसता के आधार है? 
             बताया जाता है कि आम समझ के परे, सुशील मोदी जी विकास को लेकर एक समेकित दृष्टि रखते है, सूचना तकनीक, ई-गवर्नेंस, टैक्स सुधार,  सामाजिक चेतना की जागृति आदि के सम्बंध में सुशील जी गहरी जानकारी रखते है और इन दिशाओं में सतत कार्यशील रहते है, बस श्रेय लेने की होड़ में नही पड़ते । श्री मोदी को  चाहने वाले उनसे ये शिकायत रखते है कि वो जरूरत पड़ने पर उचित कार्य मे भी मदद करने से बचते है, परन्तु राजनीति में यही सूचिता इन दोनों राजनेता के करियर को बेदाग बनाती है । दोनों राजनेताओं में  सामंजस्य जगजाहिर है ।
         भाजपा के  कार्यकर्ताओं को  सुशील मोदी से शिकायत है कि इनके कारण भाजपा को मुख्यमंत्री की कुर्सी नही मिल रही लेकिन सच ये है कि भाजपा में  मोदी के कद और गंभीरता का कोई दूसरा राजनेता बिहार की राजनीति में नही है । सबसे बढ़ कर बहुत सावधानी से दोनों ने कभी भी एक दूसरे की राह को काटा नही, तब भी नही जब नीतीश जी राजद के साथ सरकार चला रहे थे ।नीतीश जी भी अगर अकेले चुनावी मैदान में उतरेंगे तो ये जदयू के परफॉर्मेंस के लिए उपयुक्त नही होगा, ऐसे में उनके महागठबंधन में जाने के विकल्प की तुलना में भाजपा का साथ बने रहने के लिए वे विवश है । रहा सवाल भाजपा के अकेले चुनावी समर में उतरने का तो ऐसी भूल वो झारखंड में कर के देख चुकी है, महाराष्ट्र और झारखंड के परिणामो के बाद नीतीश जी की बड़े भाई की भूमिका मजबूत हुई है।
         नीतीश जी , सियासत में नई परंपरा क़ायम करने का प्रयास कर रहे हैं।काम का हिसाब तो सत्ताधारीदल से माँगा जाता है ।प्रतिपक्षी से हिसाब माँग कर नीतीश यह साबित कर रहे हैं कि सरकार के पंद्रह वर्षों के काम के बदौलत जनता का विश्वास हासिल करने का आत्मविश्वास उनमें नहीं है. इसलिए जो पंद्रह वर्षों से सत्ता के बाहर है उसको सामने खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।नीतीश जी ने बिहार का अगर विकास की है तो नीति आयोग उनकी सरकार को नालायक का प्रमाण पत्र क्यों दे रहा है । कुछ लोग कह रहें हैं कि दरअसल हाल में हुए राज्यों के चुनाव नतीजों से भाजपाई कुनबे का आत्मविश्वास हिल गया है और झारखंड चुनाव के नतीजा ने तो इनकी नींद उड़ा दी है।नीतीश जो बोल रहे हैं वह उसीका नतीजा है।
      नीतीश कुमार के बगल में अक्सर मुस्कुराता हुआ व्यक्ति दिखाई देता रहता  है, वह प्रशांत किशोर हैं।  आजकल सीएए का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं, कांग्रेस को धन्यवाद दे रहे हैं ।कभी कभी अपनी ही पार्टी के शीर्ष नेता की आलोचना कर रहे हैं। प्रशांत किशोर की 2011 के गुजरात विधानसभा चुनाव,  2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत में भूमिका को कोई अनदेखा नहीं कर सकता।ह बिहार के 2015 विधानसभा चुनाव में यही मुख्य रणनीतिकार थे। 2016 में पंजाब चुनाव में कांग्रेस के रणनीतिकार रहने, 2019 में जगन मोहन रेड्डी को आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने मे महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर चुके हैं ।लेकिन उत्तर प्रदेश के मामले में वे औंधे मुँह हो चुके हैं।आजकल ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल  इनकी विशेषज्ञता की मदद ले रहे हैं। आश्चर्यजनक है  कि नीतिश जी जिस व्यक्ति को पार्टी का उपाध्यक्ष बना दें, वही व्यक्ति उनके फैसलों को चुनौती दे यह कैसे हो सकता है? लगता है कि नीतीश जी भाजपा के पसंदीदा बने रहना चाहते हैं और प्रशांत किशोर को आगे करके विपक्ष को साधे रखना चाहते हैं, ताकि भविष्य में चुनाव नतीजों के बाद किसी भी स्थिति में बिहार की सत्ता हाथ में बनी रहे।लेकिन इसमें खतरा यही है कि कहीं वे न घर के रहे और न घाट के।जितना जल्दी इस असमंजस से जदयू बाहर निकल आये उतना ही बिहार और नीतीश जी की राजनीतिक जीवन के लिए अच्छा होगा क्योंकि सुरक्षित राजनीति हर समय अच्छा ही हो,ऐसा सुनिश्चित नही होता ?
**बुघवार मल्टीमीडिया नेटवर्क