धार्मिक घुर्वीकरण पर  अल्पसंख्यकवाद का विजय

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धार्मिक घुर्वीकरण पर  अल्पसंख्यकवाद का विजय
                  
 कृष्ण देव सिंह
       नई दिल्ली ।देश की राजधानी दिल्ली का नतीजा भारतीय जनता पार्टी और उसके सरपरस्त संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की  घार्मिक घुर्वीकरण की राजनीति के गाल पर न केवल  तमाचा है बल्कि अल्पसंख्यकवाद का भी विजय है तथा कट्टर घार्मिक सार्माज्यवादी ताकतों को  जबरदस्त हौसले में इजाफा  है।राब्ट्रीय महत्व की दिल्ली विघान सभा के  चुनाव ने कांग्रेस को मुंह दिरवाने के लायक भी नही छोड़ा है ।हलांकि इसके लिए कांग्रेस  पार्टी तथा नेताओं की अल्पसंख्यक परस्त  नीतियों और घर्मनिरपेक्षता की आड़ में होने वाली राजनीति है।इतना ही नही यह मात है उस विचार की भी जो अहंकार में झूमते,इतराते हुये हिन्दुस्तान के ताने बाने को नये शिरे  से बुनने की कोशिश कर रहा था।शिकस्त हैं सर्वशक्तिमान बन बैठे उन भाजपा एंव कांग्रेस के नेताओं की भी  जिनकी सत्ताऔर संगठन पर कब्जा जमाये ररवने की अंधी भूख ने सियासत की हर लक्ष्मण रेखा पार कर लोक और लोकतंत्र को ठोकर मारने की निर्लज्ज कोशिश की।
   .               यह एक छोटे से राज्य का विधान सभा चुनाव था जो संयोग से देश की राजधानी भी है।इसे जीतने के लिये तथाकथित पृथ्वी लोक की सबसे बड़ी पार्टी ने जो  कुछ किया पहले उसकी बानगी देख -सुनकर समक्ष लेना काफी है।सबसे पहले  प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी जी ने रामलीला मैदान में एनआरसीऔर डिटेंशन केम्प को लेकर भ्रमकारक बोला।उसी तर्ज पर केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का 'गोली मारो सालों को' वाला नारा और परवेश वर्मा का 'घर में घुस कर रेप करेंगे,मारेंगे ' वाला बयान आया।'दिल्ली का चुनाव भारत और पाकिस्तान के बीच है' यह कैसा बयान था? दिल्ली के दो बार मुख्यमन्त्री अरविंद केजरीवाल को 'आतंकवादी' तक कहा गया।'दिल्ली में अगर बीजेपी हारी तो यहां मुगलों का शासन आ जायेगा' कहने वाली भाजपा के बडबोलापनऔर फुहड़पन का भरपुर फायदा अल्पसंख्यकवाद को मजबूती प्रदान करने वाली कट्टर धार्मिक सार्माज्यवादी ताकतों ने उठाया ।क्योंकि कांग्रेस भी घर्मनिरपेक्षता की आड़ में अपनी पीटी - पिटाई जुमलों से लगातार  लोकतंत्र और बहुसंख्यकों  का अपमान  कर रहे थे।शाहीन बाग में चल रहे  आंदोलन को पुरे देश में फैलाकर साजिश के तहत इतना जहर फैलाया गया कि  कान पक गये।देश के गृह मंत्री तो शाहीन बाग में बैठे लोगों तक ईवीएम से करंट पहुंचाने की हुंकार भी भर दिया था।बस इतना समझ लीजिये कि इस चुनाव में जामिया और शाहीन बाग के बहाने हिन्द-ू मुसलमान करने के लियेे नफरत की जबरदस्त चरस बोई है।
                  सभी  जानते हैं ये हार बीजेपी के लिये और उसके मातृ संगठन आरएसएस के लिये बहुत बड़ी है? इतनी बड़ी कि अंदाज  ही लगाया जा सकता है।इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भाजपा के चाणक्य व गृह मंत्री अमित शाह जी,पूरा केन्द्रीय मंत्रिमंडल,एक दर्जन मुख्यमंत्री,इतने ही पूर्व मुख्यमंत्री,राज्यों के अगणित मंत्री,पूर्व मंत्री, दो सैकड़ा से ज्यादा सांसद,अनगिनत विधायक, पार्टी संगठन और  सबसे बड़ा कथित गैर राजनैतिक संगठन आरएसएस ।एक अदद जीत के लिये बीजेपी और उसके नेताओं ने एक तरह से युद्ध छेड़ दिया था। फिर भी हार गये और वह भी ऐसा वैसा नहीं। 63 के सामने सिर्फ 7 सीटें।फिलवक्त संभावना यही है कि इस पराजय के वाद भाजपा और उसके नेता और ज्यादा कट्टरता तथा कठोरता वाली राजनीति करेंगे क्योंकि घार्मिक सार्माञ्यवादी ताकतों ने अपना असल चेहरे का उन्हें दर्शन करा दिया है।
                दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस का खाता नहीं  खुलना और पूरी ताकत झोकने के बावजूद भाजपा का बुरी तरह पराजित हुई। इसलिए दिल्ली चुनाव के नतीजे पर भाजपा-कांग्रेस में से किसी को खुश नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है। भाजपा हारी है तो वहां सन्नाटा है। लेकिन एक भी सीट न मिलने तभा मतप्रतिशत में जबरदस्त गिराबट के बावजूद कांग्रेस नेताओं के चेहरों पर कोई सिकन देखने को नहीं मिल रही। लगता है कि भाजपा की हार को अपनी जीत मानकर कांग्रेसी खुश हैं। इसलिए क्योंकि भाजपा ने दिल्ली में पूरा चुनाव नागरिकता कानून, हिंदू-मुस्लिम और भारत-पाकिस्तान के नाम पर लड़ा। कांग्रेस का इस मसले पर राय स्पष्ट है। पार्टी का मानना है कि दिल्ली में भाजपा की सोच व राजनीति की हार हुई है और कांग्रेस के पक्ष को जनता का समर्थन मिला है। नतीजे आने के बाद नागरिकता कानून पर सवाल और तेज हुए हैं और राष्ट्रवाद को लेकर नए सिरे से बहस शुरू हुई है।
       कांग्रेस का शुरू से मानना है कि वह पड़ोसी देशों के प्रताड़ित लोगों को भारत की नागरिकता देने की विरोधी नहीं है ।लेकिन यह धर्म के आधार हो तो स्वीकार नहीं है क्योकि वह घर्मनिरपेक्षता का ध्वजघारी है। देश भर में पक्ष-विपक्ष के बीच तनातनी इसी का परिणाम है। कांग्रेस  का कहना है कि भाजपा ने इस कानून को देश के लोगों को बांटने व वोट की राजनीति का हथियार बनाया। जनता ने इस सोच को पहले झारखंड में नकारा और अब दिल्ली में। अब उन्हें कौन समक्षाये कि कांग्रेस ने अपने आस्तिन में इतने खतरनाक और जहरीलें नाग -नागिन पाल ररवे हैं कि उन्हें किसी दुश्मन की जरूरत ही नहीं है।कुछ समय से भाजपा सिर्फ उन्हें राष्ट्रवादी मानती है जो उसे वोट दें । आम आदमी पार्टी ने इससे अलग तथाकथित राष्ट्रवाद की नई परिभाषा गढ़ी। भाजपा की लाइन का विरोध करने की बजाय आम आदमी पार्टी नेताओं ने कहा कि देश के लोगों को पानी, बिजली, स्वास्थ्य व शिक्षा सहित जरूरी सुविधाएं देना असली राष्टवाद है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की राजनीति का अन्य राज्यों पर असर भी हुआ है। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी के अलावा महाराष्ट के उद्धव ठाकरे तक ने अरविंद केजरीवाल का मॉडल अपनाने की वात कही है।दिल्ली के नतीजों का एक संकेत यह भी है कि अब सरकारों को लोगों की मूल जरूरतों की दिशा में काम करना होगा। सिर्फ लोगों को भड़का कर या बांट कर वोट नहीं लिए जा सकते और न ही काम पर ऐसे मुद्दे भारी पड़ सकते। हालांकि पहले भी लोग काम के आधार पर वोट देते रहे हैं। दिल्ली में शीला दीक्षित तीन बार अपने काम की दम पर मुख्यमंत्री रहीं। बिहार के नीतिश कुमार, उडिसां की पटनायक जी जैसे नेताओं पर भी यह लागू होता है। इन नेताओं ने कभी हिंदू मुस्लिम की राजनीति नहीं की और सफल रहे। 
               दिल्ली चुनाव का संदेश
    दिल्ली की विधानसभा चुनाव भाजपा की घार्मिक ध्रुवीकरण के विरूद्ध कट्टर घार्मिक सार्माञ्यवाद की जबरदस्त प्रजातांत्रिक विजय हैा क्योंकि यदि मुसलमान और इसाई एक मुश्त एक पार्टी को वोट करे तो सरकार के खिलाफ संदेश है,कहने वालों के गाल पर सानदार चमेटा है।वैसे तो ये होता नहीं पर फिर भी यदि हिन्दू एक मुश्त एक पार्टी को वोट दे दे तो ये ध्रुवीकरण है।हिन्दू तभी घर्मनिरपेक्ष है जब उसका मत एक मुश्त न पड़े और उसका मत कम्यूनिटी वोट ना हो।धर्मनिरपेक्षता  की ऐसी ही दो कौड़ी की परिभाषा जनता को बाँटती है।  किसी को अब शकनहीं होना चाहिए कि दिल्ली का चुनाव परिणाम से हिन्दुओं को अपने घर्म और हिन्दुस्तान के प्रति और कट्टर बनायेगा।इन हालातों में कांग्रेस और मार्क्सवादी जैसी घोषित सिद्धान्तवादी राजनीतिक दलों के लिए न केबल जबरदस्त संदेश है। बल्कि अगर वे अब भी पुराना राग अलापते रहे तो जमीदोस्त हो जावेगें।उनके लिए अब केवल सामाजिक न्याय तभा सामाजिक सुघार का ही मार्ग शेष बचा है।दिल्ली चुनाव नीतीश कुमार,लालु यादव जैसे घोषित बिहारी नेताओं तथा भोजपुरीवाद व पूर्वाचलवाद का उदघोष करते  रहने वालों के गाल पर भी जोरदार तमाचा है जो बिहार से बाहर रह रहे बिहारी मूल के लोगों को अपना राजनैतिक गुलाम समक्षते है ।
        दिल्ली के  चुनाव का  विश्लेषण में आप के पक्ष में 54% वोट दिखाया गया,जो शायद उतना हीं है,जितना 2015 में था।इसका मतलब भाजपा के वोट में जो 7.5%  की वृद्धि हुई,वह कांग्रेस के वोटों के भाजपा की तरफ झुकाव से हुआ।अगर यह सही है, तो वास्तव में कांग्रेस ने भाजपा की मदद की।बताया जा रहा है कि केजरीवाल ने जानबूझकर पोस्ट वायरल करवाई की दिल्ली में केवल 12% मुस्लिम है,जिससे भाजपा और हिन्दूवादी लोग आश्वस्त हो गये कि हम जीतेंगे लेकिन असली खेल तो हर सीट पर मुस्लिम,ईसाई,सिख वोटर % प्रतिशत का था।
दिल्ली में 46 सीट ऐसी है जिनमे 26 % से ज्यादा मुस्लिम वोटर है,6 सीट ऐसी है जहाँ 35-40% मुस्लिम है।तथा 2 सीट ऐसी है जहाँ 51% मुस्लिम है।दिल्ली में लगभग 3-5% ईसाई तथा 7-11% सिख वोटर है।
केजरीवाल को 50 सीटों पर जीतने के लिए केवल 25-30 % हिन्दू वोट चाहिए थे,और  मिले भी केवल लगभग 25-30% हिन्दू वोट। इन 50 सीटों पर 24% मुस्लिम +25% हिन्दू+3% ईसाई+4 सिख
=56% वोट मिले।जितने भी हिन्दू वोट पड़े उनमे केवल 25-30% हिन्दू वोट केजरीवाल को पड़े है  जबकि भाजपा को हिन्दू वोट 70 % मिले है।भाजपा को नुकसान ये हुआ कि 38% हिन्दुओ ने वोट ही नही किया अगर 38 में से 8% भी हिन्दू वोट और देने जाते तो भाजपा को 50-55 सीटे मिलती।आम आदमी पार्टी के 25 प्रत्यासी ऐसे है जो केवल 4-5 हजार वोटों से जीते है।
इसलिए हिन्दुओ को मुफ्तखोर नही कहा जा सकता लेकिन मुस्लिम और ईसाई  ने 100% केजरीवाल को वोट दिया है।अमित शाह् केवल 8% और हिन्दुओ को बूथ तक ले जाते तो दिल्ली में आज भाजपा की सरकार होती।लोगों को सबसे खुशी  इस बात की रही कि  कथित हिन्दू विरोधी पार्टी कांग्रेस को केवल 3% हिन्दू वोट मिले।
.            आप की जीत के बाद अब  शर्मिंदगी छिपाने का एक ही तरीका बचा है कि दिल्ली की जनता को'मुफ्तखोर' कहकर अपमानित करना। एक सभ्य कहे जाने वाले लोकतांत्रिक समाज में कितनी गंदी भाषा का इस्तेमाल किया जा सकता यह ट्रोलर्स से सीखा जा सकता है। मुफ्त बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य और परिवहन पर दिल्ली का पढ़ा-लिखा मिडल क्लास भी नाक-भौं सिकोड़ता है। स्टेट की तरफ से लोक कल्याणकारी योजनाएं चलाना कोई नई बात नहीं है। दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद यूरोप के अधिकांश देशों ने इस मॉडल को अपनाया और अपने देशवासियों को 'अवसर की समानता' तथा 'एक अच्छे जीवन के लिए न्यूनतम प्रावधान' पर जोर दिया। यहां यह समझना होगा कि यह मॉडल पूरी तरह पूंजीवादी व्यवस्था पर आधारित है। यहां पर पूंजीवाद के मॉडल का इस्तेमाल लोकतांत्रिक मूल्यों और जन-कल्याण के लिए होता है। 
  .           उदारीकरण के बाद कारपोरेट, मीडिया और राजनीतिक दलों के गंठजोड़ से जो सरकारें बनीं उन्होंने कल्याणकारी योजनाओं से हाथ पीछे खींचने शुरू किए। घाटे का तर्क देकर सरकारें सार्वजनिक उपक्रमों को एक-एक करके खत्म करने लगीं। जबकि सावर्जनिक उपक्रमों के घाटे में जाने की वजह सरकारों और विशेषतौर से नौकरशाही की अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार है,। मगर सरकारें किसी भी किस्म की जवाबदेही से मुक्त रहीं। इस बार के बजट में एयर इंडिया और भारतीय रेल के बाद एलआईसी को भी निजी हाथों में सौंपने की तैयारी हो गई। तर्क दिया गया है कि "सरकार ने अगले वित्त वर्ष में घाटे को कम करने का लक्ष्य रखा है। उस पैसे को जुटाने के लिए केंद्रीय बीमा कंपनी एलआईसी के शेयर निजी कंपनियों को बेचेगी।"   
             पिछले दिनो जेएनयू और जामिया के आंदोलनों में एक और जुमला उछला था। उसकी तर्क श्रृंखला यह थी कि हमारे टैक्स से इन विश्वविद्यालयों में ये देशद्रोही मुफ्त में पढ़ते हैं। अब जरा देखिए कि डायरेक्ट टैक्स पेयर हैं कितने। शेखर गुप्ता ने 'द प्रिंट' के अपने एक आर्टिकल में लिखा है, "सीबीडीटी के आंकड़े बताते हैं कि पिछले वित्त वर्ष में केवल 6,351 व्यक्तियों ने 5 करोड़ से ज्यादा की आय का रिटर्न भरा, जिनकी औसत आय 13 करोड़ रुपये थी. इससे कितना अतिरिक्त राजस्व आएगा? मात्र 5,000 करोड़ रु., जो कि आईपीएल के सालाना टर्नओवर से बहुत ज्यादा नहीं है. गरीबों को यह सोचकर मजा आएगा कि अमीरों को निचोड़ा जा रहा है." जबकि हकीकत यह है कि आज भी देश की निम्न मध्यम वर्ग और गरीब जनता ही असली टैक्स देती है।  
           यहीं पर लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना सामने आती है। जर्मनी में अनइंप्लाइमेंट इंश्योरेंस स्कीम चलाई जाती है। जिसमें बेरोजगार लोगों को लिविंग अलाउंस देने के अलावा उन्हें रोजगार तलाशने में मदद और ट्रेनिंग की भी व्यवस्था है। इसके अलावा जर्मनी में बच्चों के डे-केयर सेंटर बड़ी संख्या में नॉन प्रॉफिट आर्गेनाइजेशन द्वारा चलाए जाते हैं और सरकार से उन्हें पर्याप्त आर्थिक सहयोग मिलता है। यूरोप के लगभग सभी देशों में डिसएबल लोगों तथा उम्रदराज़ लोगों के पुनर्वास के लिए सरकार की तरफ से योजनाएं चलती हैं। स्वीडेन में जो लोग घर का खर्च वहन नहीं कर सकते उन्हें हाउसिंग अलाउंस दिया जाता है। यूके में स्वास्थ्य सुविधाएं एनएसएच के अधीन हैं। ये स्थानीय प्रशासन की तरफ से चलाए जाने वाले स्वास्थ्य केंद्र थे जो अमूमन निःशुल्क होते थे। हालांकि पिछले कुछ सालों वहां पर भी निजीकरण की कवायद और उसका विरोध जारी है। 
कुलमिलाकर केजरीवाल को इस बात की प्रसंशा करनी होगी कि सारी नफरत फैलाने की कोशिशों, जबरदस्त पैसा झोंकने और मीडिया का सहारा लेने के बाद भी उन्होंने अपनी भाषा संतुलित रखी, अपने काम पर फोकस किया और एक शानदार जीत हासिल की। 
*बुधवार मल्टीमीडिया नेटवर्क