कोरोना और भुख के कारण सड़क पर उतरने  व डन्डे खाने के लिए मजबूर प्रवासी मजदूर          

कोरोना और भुख के कारण सड़क पर उतरने
 व डन्डे खाने के लिए मजबूर प्रवासी मजदूर        
   कृष्ण देव( केड़ी) सिंह
आज मैं अत्यन्त व्यथित ब विवश हूँ।भूखे रहने वालों के लिए मैं निःशब्द हूँ ।लॉकडाउन का अर्थ समझाने वाले बहुत हैं।कोई कविता कोई गीत कोई भाषण कोई सोशल मीडिया कोई न्यूज़ कोई गाली कोई मारपीट कर समझा रहे है। फिर भी भूखे गरीबो, मजदूरों को समझ मे नही आ रहा है । लॉकडाउन के पहले दिन ही प्रवासी कामगारों/मज़दूरों के घर लौटने की मानवीय समस्या सामने आ गई थी लेकिन 21 दिन की लम्बी समयावधि में इसके समाधान पर  विचार करने तक की ज़रूरत नहीं समझी गई। यह क्रूरता और सम्वेदनहीनता की प्रकाष्ठाहै। इससे पता चलता है कि दूरदर्शिता का घोर अभाव है शासकों में। चार बार दर्शन दिए लेकिन जन समस्याओं पर मुँह नहीं खोला।अब 3मई 2020तक लाक डाउन जारी ररवने की कठोरता से पालन करने और देशभक्ति का. अतिरिक्त उपदेश अलग से पेल दिये।
      माननीय प्रधानमंत्री जी का सन्देश आया, उन्होंने बड़ी आत्मीयता से कोरोना महामारी से बचने की बारीकियों को समझाया और  लॉक डाउन को ३ मई  तक बढ़ाने का ऐलान किया | लेकिन इस बार के ऐलान और पिछली बार के ऐलान में कुछ भिन्नता है ; इस बार उन्होंने  कहा कि " रोज कमाने - खाने वाले मजदूर मेरे परिवार के हैं " तथा २० अप्रेल तक संक्रमण नहीं बढ़ने पर लॉक डाउन में छूट दी जायेगी | इस ऐलान को प्रधानमंत्री जी के परिवार के मजदूर भाई भी सुने  और समझे | पहली.बार जब ऐलान किये तब दिल्ली के प्रवासी हजारों मजदूर सड़क पर आकर लॉक डाउन की धज्जी उड़ा दिए थे ।इस बार भी मुंबई, अहमदाबाद , सूरत इत्यादि में मजदूरों के रेलवे स्टेशनों में सैंकड़ों - हजारों की संख्या में एकत्र होने की खबर आई है | कहा जा रहा है कि मजदूरों को गलत जानकारी देकर भड़काया जा रहा है |मेरे मन में एक बात उथल - पुथल मचाये हुई है ।आखिर गरीब मजदूरों को भड़काने वाले ये कौन लोग हैं ? और मजदूर इनके भड़काने से क्यों भड़क रहे हैं और घर से बाहर निकलकर सेवाभावी पुलिस की मार खा रहे हैं ? मैं जानता हूँ कि जब संकट में आते हैं तब सबसे पहले अपने प्रिय जनों की याद करते हैं। यदि घर से बाहर रहे तब घर में पहुंच कर अंतिम सांस लेने की ईच्छा रहती है |  यह जन्मभूमि  और अपने परिवार के प्रति अटूट प्रेम का प्रतीक है।इसी तरह हम सभी भारतीयों में अपने जन्मभूमि और.अपनेको अंतिम बार देख लेने की प्रबल मनोकामना रहतीह्रै। संकट की घडी में सच्चे मित्र और शुभचिंतकों की पहचान होती है |भड़काने वाले कोई भी हों, उनका चेहरा सामने आना ही चाहिए और भाषण बाजी कर गरीब जनता के नाम का माला जपने वालों का भी |   
             मौत का तांडव के मध्य देशभक्ति 
               और अंधभक्तों का जयकारे
      भारत की बर्बादी को कौन रोक सकता है। क्योंकि लॉकडाउन का सबसे बुरा असर प्रवासी मजदूरों पर पड़ा है, खासकर उन मजदूरों पर, जो मजदूरी की तलाश में अपने गाँव से निकल कर देश के शहरों-महानगरों में आये थे।किराये का कमरा लेकर पांच छह मज़दूर 50 से 100 वर्गमीटर के झोपड़े में रहते हैं।सामूहिक शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।दैनिक मजदूरी पर निर्भर करते है उनकी कमाई पर गाँव में एक परिवार पलता है।बच्चे पढ़ते हैं। रोज़ किसी स्टेशन के बाहर, बस डेपो के बाहर या और किसी चौराहे तेराहे के पास भेड बकरी की तरह जमा होते थे, कि शायद कोई काम मिले।कई बार काम मिल भी जाते थे और कई बार नहीं भी मिलते थे।फिर भी लगभग 15 दिन काम तो मिल ही जाते थे। कुछ ऑटो चला लेते थे, किराए का ऑटो, कुछ सब्जी, कुछ फ्रूट बेच लेते थे गलियों में घूम घूम कर, कुछ और कुछ करते थे, हासिल ये कि किसी तरह जीनेभर कमा लेते थे।खुद भी पेट भर लेते थे और ज़रुरत के लिए गांव भी भेज देते थे। लेकिन लॉक डाउन की वजह से सब बंद है, पेट भरना भी मुश्किल है।झोपड़ा मालिक ने झोपड़ा खाली करवा दिया है।गाँव जाने की गाड़ी बंद है. सडक पर जमा होना और वहां से काम मिलना बंद है।ऐसे में क्या करे मजदूर? चारो तरफअँधेरा ही अँघेरा है।सरकार की घोषणाएं घोषणा भर है।गैर सरकारी संस्थाओं और भोजन खिलाने के नाम पर मदद करने वाले लोगों समूहों की क्षमता भी सीमित है. ऐसे में प्रवासी मजदूर क्या करें ?
  अपने फ्लैटों-बंगलों में बैठकर वेबसीरीज देख रहे कुछ लोग पूछ रहे हैं, क्या मज़दूरों के पास दस दिन खाने का भी राशन नहीं था? गाँव में मजदूरी क्यों नहीं करते? गाँव में मजदूर मिलते नहीं, 400 रूपये रोज़ दीजिये तो भी मजदूर नहीं मिलते हैं? मजदूरों को हराम की खाने की आदत लगा दी है कांग्रेसी सरकारों ने. मुफ्त का अनाज, मुफ्त का घर, मोदी जी ने भी मुफ्त की गैस और मुफ्त का शौचालय दे दिया है. खाओ, सोओ और हगो घर में ही, क्यों आते हो शहर? ऐसे लोगों की प्रतिक्रिया पर क्या प्रतिक्रिया दी जाय?उन्हें लगता है सरकार उनके टैक्स का पैसा, उनकी सुविधाओं के लिए खर्च करने के बजाय मज़दूरों पर खर्च कर रही है।सरकारें भी इस बात  को समझने लगी है, इसलिए सरकारी स्कूलों, सरकारी अस्पतालों पर सरकार का ज़रा भी ध्यान नहीं है, बस वो चल रहे हैं संवैधानिक निर्वाह के लिए।स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं. अस्पतालों में डॉक्टर नहीं हैं, दवाइयां नहीं हैं। कहने को प्राइमरी हेल्थ सेंटर गाँवों-कस्बों में खोल दिए गए हैं ।लेकिन सच ये है कि ज़्यादातर हेल्थ सेंटर नाम के हैं।डॉक्टर नहीं आते, जो स्टाफ आते हैं, आनेवाले मरीजों को भिखारी समझ जीभर दुत्कारते हैं, रिश्वत तक वसूलते हैं।खेती किसानी के अलावा गाँव में क्या रोजगार है? और वो खेती किसानी भी कितने दिन? ऐसे में मज़दूरों का शहर की ओर पलायन न करे तो क्या करें?
शहर आकर जैसे तैसे रहकर मजदूर अपने परिवार की परवरिश में लगे थे। बच्चों के स्कूल की फीस, परिवार का भोजन पानी, रीति रिवाज, दवा दारू का खर्च यहीं से निकलता था।लेकिन अब सब ठप्प है. उन्हें आगे का भविष्य और अँधेरा भरा दिख रहा है, क्योंकि सरकार स्पष्ट नहीं है।सरकार उनके खर्चों का बोझ उठायेगी, इसका भरोसा नहीं है।जब यहाँ पेट भर खिचड़ी भी नहीं मिल पा रही, तो आगे क्या होगा? 
     सरकार की नाकामी और कुव्यवस्था हर तरफ दिख रही है, न सिर्फ निर्णय देर से किया गया, बल्कि जो इंतज़ाम किये गए वे भी नाकाफी हैं, बस खानापूर्ति भर हैं. लेकिन मेरी शिकायत विपक्ष से भी है. विपक्ष क्या कर रहा है? कांग्रेस तो कुछ न कुछ करती भी दिखती है परन्तु समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, तेलुगु देशम, पचासों पार्टियाँ हैं. वे सब क्या कर रही हैं ? क्या जनसेवा सिर्फ सत्ता में बैठ कर ही की जा सकती है? उनके विधायक, सांसद, पार्षद क्या कर रहे हैं? करोड़ों रूपये खर्च कर इलेक्शन लड़ने वाले उनके हज़ारों नेता कहाँ हैं ?।मुम्बई दिल्ली जैसे शहरों में यूपी, बिहार, कर्नाटक के नाम पर राजनीति करने वाले नेता कहाँ हैं?देश भर के प्रवासी.मज़दूरों ये विपत्ति की घड़ी तुम्हें ये बताने के लिए आई है, कौन अपना है कौन पराया ? चुनाव के समय याद रखना. दो बोतल दारू, दो साड़ी और कुछ हज़ार रुपयों के लिए बिक मत जाना।
             कोरोना के साथ साथ अब भूख का तांडव भी  सडक पर उतर आया !प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति दिन प्रतिदिन बद से बदतर होते जा रही है कोई भी जहाँ काम कर रहा था, रोजगार बिहीन होते ही उस स्थान पर रुकने के लिये तैयार नही। हर सीमा पर भीड़ है कोई भी अपने यहाँ सरलता से घुसने नही दे रहा है ।चाहे विकसित ,विकाशशील या पिछडे सूबे हो सभी नेतृत्व की सोच एक ही प्रकार का है ।  अब वक्त आ गया है जब मजदूरों को ही अपने ही क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने के लिये आगे बढ़ना पड़ेगा।
        जब कभी बिहार के गाव में जाता हूं देखता हूं कि सैकड़ो एकड़ कृषि भूमि मजदूरों की कमी के कारण या मजदूरी डर अधिक होने के कारण,पड़ती पड़ा है तो सोचने पर बिवस होता हूँ की ऐसा क्यों होता है ।हमारे ही गॉव के मजदूर दूसरे जगह के खेतों में काम कर लेते है।जबकि  रहने की उचित ठिकाना नही है ।एक एक कमरे में दस से बीस लोग निवास करते है ।कहीं कही तो लोग घर भी  पाली  के अनुसार होता है। यह कहानी लगभग सभी प्रवासी शहरी मजदूरों का है।  लेकिन अपने आने बाली पीढी को विकसित करने के लिये घर परिवार को छोड़कर दिन रात एक कर पैसे के पीछे भागते रहते है।।  लेकिन पूँजीबादी व्यबस्था इनको आगे बढ़ने नही देता है?
       लोग कहते सर्वाधिक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी इन्ही दिहाड़ी मजदूर के इलाके से ही आते है लेकिंन ये शिक्षित भी अपने इलाके के बिकाश नही करते ।वे और उनके बच्चे शहरी जाल में फंस कर दोचार भवनों के या एक दी छोटे कारखाना के मालिक  बनकर अपने आपको विकसित समझने लगते है। लेकिन जब अंत समय आता है तो अपने आपको वृद्धा आश्रम या साधुओं के आश्रम में पाते है तब उनका आँख खुलता है पर कुछ करने के लायक ही नहीं रहते हैं !
*बुघवार बहुमाध्यम समाचार सेवा