निजामुद्धीन के मरकज तब्लीकि जमात को लेकर कोहराम

निजामुद्धीन के मरकज तब्लीकि
जमात को लेकर कोहराम
बुघवार*स्ट्राइकर
      जब टीवी में न जाने कितने मौलवी चीख चीख कर कह रहे थे, हमारे कुरान में लिखा है, हमें कोराना नहीं हो सकता। हम कोरोना से नहीं डरते। न जाने कितने लोगों के सपने में कोरोना आई। सरकार ने लाॅक डाउन किया तो देश में मुस्लिम कौम को नगावार गुजरा। अब लाॅक डाउन से पहले दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन स्थित मरकज में न सिर्फ देश के विभिन्न राज्यों से बल्कि, विदेशों से भी एक से 15 मार्च तक तब्लीग -ए- जमात में हिस्सा लेने के लिए लोग पहुंचे थे। कुल 1830 लोग मरकज में पहुंचे थे। कोरोना वायरस के चलते मरकज से अब तक कुल 860 लोगों को निकालकर अलग,अलग अस्पतालों में पहुंचाया जा चुका है।इसको लेकर पुरे देश में कोहराम मचा है।जाहिलों को कौन समक्षा सकता है कि कोरोना -19किसी को भी बक्सनेवाला नहीं है।                                                                           
             भीड़ की वजह से कोरोना होने पर कइयों के दिल में मजहब  बाहर आकर कूकने लगा। वहां आने वाली भीड़ की तुलना, आनंद बिहार की भीड़ से  नहीं की जा सकती। इसलिए कि उस भीड़ के पैर में मजबूरी थी। लेकिन निजामुद्दीन में आने वाले लाॅक डाउन के बाद क्यों रूक गये थे? जमात की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि उन लोगों ने प्रशासन को पूरी जानकारी दी थी और यहां से लोगों को निकालने के लिए भी मदद मांगी गई थी। सच क्या जांच पर पता चलेगा?फिलहाल अल्लाह के बंदे अपने मौलवियों की बातों पर यकीन कर लिये कि उन्हें कोरोना छू भी नहीं सकता। बीमारी का कोई मजहब नहीं होता। इतनी सी बात अल्लाह के बंदों को समझ में नहीं आई। अब निजामुद्दीन मरकज कोरोना का स्पाॅट बन गया है।
             मैं भी.धर्म को कुनबापरस्ती का हथियार मानता हूँ और पंडो-मौलवियों को अनुत्पादक समय बिताते हुए मुफ्त का माल उड़ाने वाले परजीवी से अधिक कुछ नहीं समझता।।इसमें बाकी सभी धर्मों के पुजारी भी शामिल हैं. इस तरह के लोग अपने-अपने कुनबे के साधारण लोगों को जाहिल बनाकर रखना चाहते हैं।इनके  अभियान में कोई खलल नहीं पड़े, इसलिए  सभी का अपना-अपना  गैंग होता है। भारत जैसे लोकतन्त्रों में वोट के लिए राजनैतिक पार्टियाँ इनके द्वारा की जानी वाली आपराधिक हरकतों पर बड़े हिसाब से  कूटनीतिक  बयान देतीं हैं। एक की गलती को दूसरे की गलती से जस्टिफाई कर दिया जाता है और सिलसिला चलता रहता है,  राजनीति चलती रहती है और 73 साल के बाद पता चलता है कि इस देश में गरीबों की कोई औकात नहीं है।ऐसे में यह मरकज वाला मामला आ गया. निजामुद्दीन में भारत के विभिन्न हिस्सों से गए सभी लोग भारत के दुश्मन नहीं हैं।उन सभी लोगों ने देश में कोरोना फैलाने के कथित "पूर्वनिर्धारित फैसले के साथ" जलसे में शिरकत नहीं की थी। कुछ लोग आँख और दिमाग बंद करके जलसे के पक्ष में खड़े हैं तो कुछ लोग आँख और दिमाग बंद करके इसे नफरत की आग जलाने के स्वर्णिम अवसर के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. यह दोनों प्रवृत्ति खतरनाक है। किसी ने ऐसे जलसे रोकने के लिए फतवे की माँग कर दी।फतवा ही क्यों ? चिकित्सा जगत और प्रशासन और भारत सरकार का कोई वजूद नहीं है, उसकी सलाह,  उसका आदेश मानने के लिए एक फतवे की ज़रुरत होगी ?मरकज के मामले में जमात, जमात के पैरोकार, अंधविश्वास के प्रचारक मौलवियों का माफिया तंत्र, कट्टरवादी संगठन, इस मौके का लाभ उठाने को बेचैन कट्टर हिंदूवादी संगठन, गृह मंत्रालय, दिल्ली पुलिस, तथाकथित और वास्तविक वुद्धिजीवी, सड़कछाप फेसबुकिया नेताओं और जनहित में गंभीर राजनीत करनेवाले लोगों के अलग-अलग तर्क और बयान हैं।
         निजामुद्दीन में मरकज का जलसा 20 मार्च से उठना आरम्भ हो जाना चाहिए था. 22 मार्च तक स्वेच्छा से मरकज खाली कर देना चाहिए था. ऐसा नहीं हुआ, यह गलती हुयी है। मरकज या मस्जिद कोई राजनैतिक दल नहीं होते. इनका धार्मिक-अध्यात्मिक आयाम होता है. लेकिन मानव समाज से ऊपर कोई धार्मिक-अध्यात्मिक आयाम नहीं हो सकता. मरकज के अलावा देश में अनेक धर्मों के अनेक धार्मिक-अध्यात्मिक संस्थान है।और भारत बहुत ऊपर उठ चुका है, धर्म के आधार पर नफरत फैला कर इंसानियत को शर्मशार करने की हर कोशिश के खिलाफ खडा कैसे हुआ जा सकता है, यह इस देश की अधिकाँश जनता सीख चुकी है।
                 कही कोई षड्यंत्र तो नही ?
        तब्लीगी जमात की स्थापना 1927 में एक सुधारवादी धार्मिक आंदोलन के तौर पर मोहम्मद इलियास कांधलवी ने की थी। यह धार्मिक आंदोलन इस्लाम की देवबंदी विचार धारा से प्रभावित और प्रेरित है। मोहम्मद इलियास का जन्म मुजफ्फरनगर जिले
के कांधला गांव में हुआ था। उनके जन्म की ठीक तारीख पता नहीं है। इतना पता है कि 1303 हिजरी यानी 1885/1886 में उनका जन्म हुआ था। कांधला गांव में जन्म होने की वजह से ही उनके नाम में कांधलवी लगता है। उनके पिता मोहम्मद इस्माईल थे और माता का नाम सफिया था। एक स्थानीय मदरसे में उन्होंने एक चौथाई कुरान को मौखिक तौर पर याद किया। अपने पिता के मार्गदर्शन में दिल्ली के निजामुद्दीन में कुरान को पूरा याद किया। उसके बाद अरबी और फारसी की शुरुआती किताबों को पढ़ा। बाद में वह रशीद अहमद गंगोही के साथ रहने लगे। 1905 में रशीद गंगोही का निधन हो गया। 1908 में मोहम्मद इलियास ने दारुल उलूम में दाखिला लिया। 
                          यू शुरू हुआ आन्दोलन
      हरियाणा के मेवात इलाके में बड़ी संख्या में मुस्लिम रहते थे। इनमें से ज्यादातर काफी बाद में इस्लाम धर्म को स्वीकार किया था। 20वीं सदी में उस इलाके में मिशनरी ने काम शुरू किया। बहुत से मेव मुसलमान ने मिशनरी के प्रभाव में आकर इस्लाम धर्म का त्याग कर दिया। यहीं से इलियास कांधलवी को मेवाती मुसलमानों के बीच जाकर इस्लाम को मजबूत करने का ख्याल आया। उस समय तक वह सहारनपुर के मदरसा मजाहिरुल उलूम में पढ़ा रहे थे। वहां से पढ़ाना छोड़ दिया और मेव मुस्लिमों के बीच काम शुरू कर दिया। 1927 में तब्लीगी जमात की स्थापना की ताकि गांव-गांव जाकर लोगों के बीच इस्लाम की शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जाए।आज
तब्लीगी जमात के लोग पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। बड़े-बड़े शहरों में उनका एक सेंटर होता है जहां जमात के लोग जमा होते हैं। उसी को मरकज कहा जाता है। वैसे भी उर्दू में मरकज जो है वह इंग्लिश के सेंटर और हिंदी के केंद्र के लिए इस्तेमाल होता है।उर्दू में इस्तेमाल होने वाले जमात शब्द का मतलब किसी एक खास मकसद से इकट्ठा होने वाले लोगों का समूह है। तब्लीगी जमात के संबंध में बात करें तो यहां जमात ऐसे लोगों के समूह को कहा जाता है जो कुछ दिनों के लिए खुद को पूरी तरह तब्लीगी जमात को समर्पित कर देते हैं। इस दौरान उनका अपने घर, कारोबार और सगे-संबंधियों से कोई संबंध नहीं होता है। वे  लोगों के बीच इस्लाम की बातें फैलाते हैं और लोगों को अपने साथ जुड़ने का आग्रह करते हैं। इस तरह उनके घूमने को गश्त कहा जाता है। जमात का एक मुखिया होता है जिसको अमीर-ए-जमात कहा जाता है। गश्त के बाद का जो समय होता है, उसका इस्तेमाल वे लोग नमाज, कुरान की तिलावत और जिक्र (प्रवचन) में करते हैं। जमात से लोग एक निश्चित समय के लिए जुड़ते हैं। कोई लोग तीन दिन के लिए, कोई 40 दिन के लिए, कोई चार महीने के लिए तो कोई साल भर के लिए शामिल होते हैं। इस अवधि के समाप्त होने के बाद ही वे अपने घरों को लौटते हैं और रोजाना के कामों में लगते हैं। तब्लीगी जमात के सिद्धांत छह बातों पर आधारित हैं जिनको छह बातें, छह सिफात और छह नंबर भी कहा जाता है। वे सिद्धांत इस तरह हैं... 
1. ईमान यानी पूरी तरह अल्लाताला पर भरोसा करना। 
2. नमाज पढ़ना 
3. इल्म ओ जिक्र यानी धर्म से संबंधित बातें करना 
4. इकराम-ए-मुस्लिम यानी मुसलमानों का आपस में एक-दूसरे का सम्मान करना और मदद करना। 
5. इख्लास-ए-नीयत यानी नीयत का साफ होना 
6. रोजाना के कामों से दूर होना 
       फजाइल-ए-आमाल जिसका मतलब हुआ अच्छे कामों के फायदे या खासियतें। फजाइल-ए-आमाल तब्लीगी जमात के बीच पवित्र किताब है। उस किताब में उनके छह सिद्धांत से संबंधित बातें है। दोपहर की नमाज के बाद तब्लीगी जमात से जुड़े लोग एक कोने में जमा हो जाते हैं। वहां कोई एक व्यक्ति फजाइल-ए-आमाल पढ़ता है और बाकी लोग ध्यान से सुनते हैं। 
            सालाना इज्तिमा या जलसा
   आमतौर पर अक्टूबर के महीने में इस इज्तिमा का आयोजन होता है। यह जलसा तीन दिनों के लिए पाकिस्तान में लाहौर के करीब रायवंड में होता है। इसमें दुनिया भर के तब्लीगी जमात से जुड़े लोग शिरकत करते हैं। पाकिस्तान में भी तब्लीगी जमात से कोरोना फैलने का अंदेशा है।बंगलादेश में भी साल के आखिर में आयोजित होता है। यह बांग्लादेश के कई अलग-अलग शहरों में कई दिनों तक जारी रहता है। इस इज्तिमा में पूरा बांग्लादेश उमड़ पड़ता है।  इज्तिमा देश में साल के आखिरी में यानी दिसंबर में मध्य प्रदेश के भोपाल में भी यह इज्तिमा होता है। इसमें लाखों लोग शिरकत करते हैं। पहले यह भोपाल की मस्जिद ताजुल मसाजिद में होता था। वहां जगह कम पड़ने लगी तो शहर के करीब में ईट खेड़ी नाम की जगह पर होने लगा। 
           जमात के मरकज 
भारत में दिल्ली के निजामुद्दीन में बंगले वाली मस्जिद में तब्लीगी जमात का मरकज है। दुनिया भर में तब्लीगी जमात के बीच इस मरकज की हैसियत तीर्थस्थल जैसी है। पाकिस्तान के रायवंड में मदनी मस्जिद में तब्लीगी जमात का मरकज है। ये दोनों अहम मरकज हैं। बाकि दुनिया भर में इसके कई मरकज हैं।
        नजामुद्दीन मरकज में तबलीगी जमात में 100 विदेशियों के अलावा लगभग 1500 से अधिक लोग मौजूद थे । ऐसी सूचना  मीडिया से प्राप्त हुई ।यहां कोरोना के संक्रमण फैलने से कई लोगों की मौतें भी हो गई है ।संक्रमित लोगों और मरने वाले लोगों की संख्या अभी बढ़ सकती है क्योंकि जमात के लोग वापस कहां कहां पहुंचे ? यह खोज का विषय है ।इस मरकज में अनेको प्रदेशों के लोग थे ।जब लगातार यह सूचना साझा हो रही थी कि कोरोना पैर पसार रहा है तब आयोजक का यह दायित्व था कि वे इसे निरस्त करते और समय पर सूचना शासन को देते ।  उनकी इस त्रुटि का खामियाजा अन्यों के अलावा स्वयं मुस्लिम भाइयों को सहना पड़ेगा। सभी धर्मो के धर्मगुरुओं को आज के अपने दायित्व को महसूस करना चाहिए और ऐसे आयोजनों से बचना चाहिए जिनमें परस्पर दूरी संभव नहीं । अमेरिका के राष्ट्रपति  ने कहा है कि सोशल डिस्टेंस नहीं रखा तो अमेरिका में 22 लाख तक मौत हो सकती हैं ।अगर यह आंकड़ा 1 लाख पर भी रोक लें तो यह गनीमत है  । इसी प्रकार ईरान में इटली में अन्य देशों में मौतों का तांडव हो रहा है । कोरोना एक महामारी है जिससे धार्मिक परंपराएं नहीं बचा सकती बल्कि परंपराओं पर विराम देकर धर्मावलंबी बच सकते है ।
*बुघवार बहुमाध्यम समूह