देशभक्ति व सामाजिक न्याय बनाम राब्ट्रीयता व कमंडल।
के ड़ी . सिंह
क्या बिहार भी उप्र० की तरह राजनीतिक रणनीति
2020 के लिए भाजपा अपना रही है१ क्या बिहार में सामाजिक न्याय और देशभाक्ति बनाम राष्ट्रीयता तथा कंमडल के मध्य मुकावला होगा?क्या बिहार में नये शिरे से राजनैतिक और सामाजिक ताकतो का घुर्वीकरण होगा ? ऐसे कई प्रश्न आज देश और प्रदेश की हवा में तैर रहे हैा हलांकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि वे मजबूती के साथ भाजपा की नेतृत्ववाली मोदी सरकार के साथ मजबूती के साथ खेडे हैं तथा केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने समस्या का समाघान निकल आने की वात कहीं है।हलांकिभाजपा ने घोषणा कर दी है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में विघानसभा चुनाव लडेगी।
वर्ष2017 में उप्र० में भाजपा में मुख्यमंत्री पद के पाँच चेहरे थे। भूमिहार मनोज सिन्हा, कोयरी केशव मौर्य, कुर्मी स्वतंत्र देव सिंह, ब्राह्माण कलराज मिश्रा, राजपूत योगी आदित्य नाथ। लेकिन नतीजे आने के बाद संघ की पसंद राजपूत आदित्य नाथ मुख्यमंत्री बनाये गये ॥ पुलिस की गोलियां खाकर मरने वाले व्यक्ति के जनेऊधारी होने की वजह से रिकार्ड तोड़ चालीस लाख रूपया मुआवजा दिया गया, पत्नी को उच्च सरकारी पद दिया गया। उत्तर प्रदेश में इतना मुआवजा तो शहीदों को भी नहीं दिया गया है।
बताया जा रहा है कि बिहार में भी इसी तर्ज पर भाजपा के भी चार मुख्यमंत्री पद के चेहरे हैं। यादव नित्यानंद राय, वैश्य सुशील मोदी, भूमिहार और भक्तों के लिए गिरिराज सिंह, राजपूत और संघ कोटे से राजेन्द्र सिंह मुरव्यमंत्री पद के दावेदार हैं। पत्रकार अनंत सिन्हा बताते हैं कि नित्यानंद राय को गृह राज्य मंत्री का ओहदा देकर अमित शाह उनके कद में इजाफा कर दिया है।
सीएसडीएस के आँकड़ों के अनुसार लोस चुनाव में सिर्फ 55 प्रतिशत यादवों ने महागठबंधन को वोट किया हैं, जबकि एनडीए को 21 प्रतिशत एवं अन्य को 24 प्रतिशत यादव वोट मिला है। हालांकि इसमें जदयू की भी भागीदारी है और रामकृपाल यादव, दिनेश चंद्र यादव, अशोक यादव के निजी प्रभाव को खारिज नहीं किया जा सकता है। फिर भी लालू का आधार वोट तो कम हुआ है। अगली संघी रणनीति के तहत मीडिया में लालू प्रसाद यादव परिवार के राजनीतिक अंत का माहौल बनाया जाएगा। वहीं दूसरे छोर से चार-पाँच अलग अलग जातियों के मुख्यमंत्री उम्मीदवार पेश कर जातीय समूहों को भ्रमित कर वोट लेकर संघ के नुमाइंदे को बिहार की गद्दी सौंपने की चर्चा फिलहाल वंद है। इस पूरी रणनीति के तहत भ्रम में सिर्फ ओबीसी वोटरों को ही रखा जाएगा, क्योंकि सवर्ण तो भाजपा के 'तराजू' में पहले से ही बैठा हुआ है।स्मरण रहे कि पहले उपेन्द्र कुशवाहा के संबंध में जो लिखा गया था वही घटित हुआ है। 2020 में सामाजिक न्याय के आखिरी किले पर घनघोर कमंडल का तांडव होगा ।
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार इस चाल को भांप नहीं रहे है। नीतीश कुमार भाजपा की चाल को चुनाव के पहले ही समझ चुके थे। बीजेपी के उप्र० विजय में अति पिछड़े वर्ग की ही भूमिका थी। इन्हीं परिस्थितियों को भांपते हुए अति पिछड़े वर्ग के स्वाभाविक नेता नीतीश कुमार ने सात लोकसभा सांसद बनाकर बीजेपी के मुकाबले अपनी मजबूती को बरकरार रखा है। ये सातों सांसद विधानसभा चुनाव में नीतीश के अभियान रथ के सात घोड़े की होंगे । इसके आतिरिक्त उन्होने जदयू कोटे से आठ विधायक सर्वश्री अशोक चौघरी,नीरज कुमार,लक्ष्मेश्वर राय,श्याम रजक,रामसेवक सिंह कुशवाहा,बीमा भारती,संजय क्षा तभा नरेन्द्र नारायण यादबको मंत्रीपद की सपथ दिलाकर अपना जबाबी तेवर दिखा दिया है
तो क्या मान किया जाय कि बिहार की अगली लड़ाई नीतीश कुमार के नामपर ही होने जा रही है। यदि केंद्र की राजनीति में नरेन्द्र मोदी के समक्ष विकल्प नहीं था तो बिहार की राजनीति में भी नीतीश कुमार के समक्ष कोई नहीं है। यही कारण है कि बिहार में भी अमित शाह 'यूपी प्लान' को लागू यादव नित्यानंद राय को गृह राज्य मंत्री बनाकर अपनी तैयारियाँ शुरू कर दी थी।अब भाजपा से अधिक नीतीश कुमार से लड़ने वाले महागठबंधन की भूमिका पर निगाहें रखा जानाचाहिए कि सामाजिक न्याय के हितों की रक्षा के लिए ये क्या रुख अपनाते हैं
केंद्रीय मंत्रिमंडल का नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गठन हुआ और नीतीश कुमार की पार्टी जनतादल यूनाइटेड उससे बाहर रह गयी . खबरों के अनुसार नीतीश अधिक मत्री चाहते थे . भाजपा सांकेतिक प्रतिनिधित्व देना चाहती थी . अनबन हुई ,और नीतीश की पार्टी बाहर रह गयी । नीतीश का वह जमाना था जब वह अटल -आडवाणी के नजदीक मित्र- भाव से बैठते थे । भाजपा नेता तो उनके पास सहज ही नहीं रह पाते थे . इन लोगों में प्रधानमंत्री मोदी भी थे . लेकिन यह सब समय -समय की बात है ।नीतीश जी मित्र रहे और कभी साथ -साथ थोड़ी राजनीति भी की थी । राजनीतिक संघर्ष और सत्ता के साथी अलग -अलग होते हैं .॥लेकिन नीतीश कुमार की निर्मिति जिन अवयवों से हुई है ,उसे बहुत कुछ मैं जानता हूँ . तबियत से वे समाजवादी है।
1994 में वह बिहार जनता दल से जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में अलग होकर एक पार्टी बनाई समता पार्टी .। 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित हो जाने के बाद जब उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और भाजपा एक साथ हुए ,तब नीतीश भी 1996 का लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ हो कर लड़ा। उनका साथ 13 जून 2013 तक रहा Iइन्ही नरेंद्र मोदी कोप्रधानमंत्री घोषित करने के सवाल पर वे भाजपा से कुट्टी कर ली ।
2014 के लोकसभा चुनाव में शिकस्त खाने के बाद उन्होंने लालू प्रसाद से राजनीतिक गठजोड़ किया और 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को धूल चटा दी ॥ लेकिन जुलाई 2017 में वह एक दफा फिर भाजपा की गोद में जा बैठे . संभव है नीतीश कुमार की कुछ मजबूरियां हों ,लेकिन उसे उनका गलत फैसला माना गया . अब उसी राजनीति के तहत उन्होंने इस बार के लोकसभा चुनाव में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है .लेकिन इतिहास में यह भी ,ऐसा भी होता है कि कोई जीत किसी हार से भी बदतर हो जाती है । इस बार की जीत में नीतीश कहीं नहीं हैं . इसीलिए इस जीत के बावजूद नीतीश के चेहरे पर उदासी हैं ?
हलांकि नीतीश को शुरू में ही मंत्रिमंडल से अलग रहने की घोषणा इस आधार पर कर सकते थे कि भाजपा को स्पष्ट बहुमत है और वह सरकार बनावे . हम मुद्दों के आधार पर समर्थन देंगे .क्योंकि कुछ मुद्दों पर हमारे विचार भिन्न हैं . भाजपा को स्पष्ट बहुमत है और उसे सरकार बनाने केलिए किसी के सहयोग की दरकार बिलकुल नहीं है . ऐसे में वह अपने मित्र दलों का एक -एक प्रतिनिधि मंत्रिमंडल में रखता है ,तो यह उसकी उदारता कही जाती।नीतीश के पास अभी समय है कि वह खुद को संभाल सकें ॥
बिहार की राजनीति में भाजपा लालू से निबट चुकी ,अब वह नीतीश से निबटना चाहेगी . वह एक विचारधारा की राजनीति कर रही है . नीतीश धारा 370 वगैरह पर अपना स्टैंड नहीं बदल रहे हैं ,यह भाजपा को कैसे सह्य होगा . वह चाहेगी कि नीतीश भी रामविलास पासवान की तरह पालतू बन जाएॅ। प्रधानमंत्री की सभा में वन्दे मातरम पर नीतीश चुपचाप बैठे रहे।इस तरह की नौटंकियों से वह परहेज करते रहे हैं .लेकिन अभी जिस नाटक -मंडली में वह शामिल हुए हैं ,वहां तो बस वन्दे मातरम से जयश्रीराम की यात्रा है ॥लेकिन नीतीश जी को वचपन से ही जय सिया राम और सीताराम की जय सिखाया गया है क्यों कुर्मी और कोयरी (कुशवाहा) अपने को लव -कुश के वंशज मानती है और माता सीता उनकी अराध्याहैा मुझे एक लोककथा का स्मरण हुआ ,जिसमे जंगल जा रहे एक आदमी से दूसरे ने पूछा था ,यदि बाघ मिल जायेगा तो क्या करोगे ? नीतीश -भाजपा प्रकरण में अब जो करना है ,भाजपा को करना है . नीतीश ,आज उसके लिए भार बन गए हैं ,न कि साधन . भाजपा की दिली ख्वाइश उनसे छुट्टी पाने की होगी . वह इसी का इंतजार करेगी . नीतीश यदि बाहर निकलने का कोई मर्यादित रास्ता ढूंढते है तो वात अलग है।
*बुघवार मल्टीमीडिया नेटवर्क