गर्दा के साथ नामर्दा वाला शहर..!
संजय सक्सेना
जर्दा, पर्दा और गर्दा के लिए जाने जाना वाला शहर भोपाल आज भी गर्दा यानि धूल के गुबार से मुक्त नहीं हो पा रहा है। राजधानी होने के बावजूद यहां के विकास और खास तौर पर इन्फ्रास्ट्रक्चर पर सवालिया निशान लगा हुआ है। उलटे विकास के नाम पर यहां का पर्यावरण नष्ट कर कांक्रीट के जंगल बनाए जा रहे हैं, जो शहर की सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह साबित हो रहे हैं।
संस्था ग्रीनपीस इंडिया की ओर से एक दिन पहले जारी देशभर के 287 में से 231 प्रदूषित शहरों की सूची पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि मध्यप्रदेश के 14 शहर और कस्बे बेहद प्रदूषित हंै। भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर और सिंगरौली 100 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल हैं। ये चारों ही शहर नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम में शामिल किए गए हैं। सूची के अनुसार भोपाल प्रदेश का सर्वाधिक और देश का 63वां सबसे प्रदूषित शहर है, क्योंकि यहां पर्टिकुलेट मैटर यानी पीएम-10 का स्तर बीते 6 साल से प्रदेशभर में सर्वाधिक बना हुआ है। भोपाल के बाद प्रदेश में दूसरे स्थान पर ग्वालियर है, जो देश में 66वां सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। यहां भी पीएम-10 का स्तर लगातार बढ़ा हुआ ही रहता है। प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह बढ़ती ट्रैफिक मोबिलिटी और खराब इंफ्रास्ट्रक्चर है।
सड़कों पर वाहनों के गिरते टायर और उनकी नीचे पिसता कचरा सबसे ज्यादा पीएम10 यानी डस्ट पार्टिकल पैदा करता है। शहर में अनियंत्रित निर्माण गतिविधियां और कचरे का ठीक से निपटान ना होना पीएम10 बढऩे का दूसरा बड़ा कारण है। नए निमार्ण के साथ-साथ पुराने निर्माणों को तोडऩे में धूल नियंत्रण के उपायों की अनदेखी शहर में धूल बढ़ा रही है। स्मार्ट शहर के नाम पर शहर के अंदर पर्यावरण और पुराने शहर की पहचान को नष्ट किया जा रहा है। चारों तरफ धूल ही धूल दिखाई देती है। उस पर राजधानी में बढ़ते जा रहे वाहनों का शोर और उनसे निकलने वाले धुएं का जहर भी हवाओं में घुल रहा
है। केंद्र सरकार की योजना स्मार्ट सिटी कायदे से शहर के बाहर या निर्जन स्थान पर एक छोटा शहर बनाने की होना चाहिए, लेकिन यह योजना शहरों के अंदर ही लागू की गई है। इस कारण पहले शहरों में तोडफ़ोड़ हो रही है, जिससे बड़ी मात्रा में धूल वातावरण में छा गई है। और जब कोहरा छाता है तो यह स्माग जानलेवा बन जाता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान स्वच्छ पर्यावरण वाला शहर भोपाल अब प्रदूषित शहरों की सूची में शुमार हो गया है।
एक तो राजधानी के आसपास के जंगलों को काटकर बस्तियां बसाई गई हैं और यह क्रम आज भी जारी है। सरकारों की भी इसमें बराबर हिस्सेदारी रही है। अच्छी खासी हरी-भरी पहाडिय़ों को काट-काट वहां ऊंचे भवन बना दिए गए हैं। सरकारी इमारतें अधिकांश पहाडिय़ों पर ही बनी हैं। ऊंची पहाडिय़ों पर जो पेड़ या जंगल होते हैं, वो धूल से प्रभावित नहीं होते और वायुमंडल को साफ रखते हैं, लेकिन यह हमने खत्म कर दिया है। सो अपने वातावरण को स्वयं ही प्रदूषित करने का काम यहां के लोगों और सरकारों ने किया है। यहां के मास्टर प्लान पर भी राजनेताओं और अधिकारियों और भू माफिया के गठजोड़ की मुहर लगती है। घने जंगलों में स्कूल-कालेज और तमाम भवन ताने गए हैं। और तो और रिजर्व फारेस्ट की परिभाषा को भी बदला गया है। जो बाघ के मूवमेंट वाले क्षेत्र थे, वहां बस्तियां बन गई हैं। दर्जनों नेताओं और अफसरों के साथ ही कई कारोबारियों ने भी जंगलों में आलीशान भवन ताने हैं। यह उनकी शान हो सकती है, लेकिन शहर के पर्यावरण के लिए तो बदनुमा दाग ही कहे जाएंगे।
ग्रीनपीस की रिपोर्ट चौंकाने वाली है, लेकिन उनके लिए जिन्हें इस भयावह खतरे का आभास हो। जो पर्यावरण विनाश के खतरों को लेकर सजग हों। भोपाल में तो ऐसे लोगों की कमी ही दिखाई देती है। एकाध आवाज उठती है तो वो नक्कारखाने में तूती की तरह दब जाती है। कुछ एक्टिविस्ट और कुछ मीडिया वाले लिखते-बोलते हैं, तो उन्हें व्यवस्था विरोधी करार दे दिया जाता है। भोपाल के तो जन प्रतिनिधि भी इस मामले में पूरी तरह से असंवेदनशील और सुसुप्त हैं, चाहे सांसद हों या विधायक, कोई पर्यावरण को लेकर संजीदा नहीं है। अधिकारियों की बात करें तो वे मैराथन जैसे आयोजन कर सरकारी
पैसा खर्च करने की दुकानें खोल लेते हैं। एक पूर्व कलेक्टर ने भी दौड़ के नाम पर दुकान खुलवा ली है। आज तक ऐसी दौड़ या मैराथन से एक रत्ती न तो जागरूकता आई और न ही कोई सुधार हुआ। फिर भी, शहर को जिंदा रखना है तो चेतना होगा। जागना होगा। जर्दा, पर्दा, गर्दा के साथ नामर्दा वाले शहर की यह पहचान कब तक बनाए रखेंगे..?
गर्दा के साथ नामर्दा वाला शहर..!
• KRISHAN DEO SINGH