घर्मनिरपेक्षता को पुनः परिभाषित कर की आवश्यकता
कृब्ण देव सिंह
महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर गोपाल शर्मा ने दिल्ली में जो किया, उसके कृत्य ने हमारे सामाजिक और धार्मिक कट्टरता को और ज्यादा उजागर कर दिया है।इसके लिए कौन दोषी हैं ?यह उस जहर का साफ परिणाम है जो कट्टरपंथियों ने आवोहवा में सुनियोजित तौर पर घोला है और आने वाली पीढ़ी को इस हद तक खतरनाक स्थिति में ला दिया है Iक्या इसके लिए केवल हिन्दुत्ववादी संगठन व नेता जिम्मेदार है?क्या मुसलमान पाक साफ है?क्या धर्मनिरपेक्षता की आड़ में राजनैतिक व मजहवी लोग घार्मिक सामार्ज्यवाद को बढ़ावा नहीं मिल रहा है?ऐसे अनेक प्रश्न आज अलग -अलग रंग-ठंग से पुछे जा रहे हैं जिसका समुचित समाधान खोजने की आज आवश्यकता है।क्या आज की हालातों घर्मनिरपेक्षता को नये सिरे से पुनःपरिभाषित करने की आवश्यकता नही है?क्योंकि हिन्दुओं के दिलों दिमाग में अब बैठता जा रहा है कि घर्मनिरपेक्षता की आड़ में उनके साथ अन्याय किया जा रहा है।
महात्मा गांधी की शहादत के बाद के 72 वर्षों में कृतज्ञ भारतीयों का उन्हें श्रद्धांजलि देने और उनके विरोधी विचारधारा का विरोध करने का सबसे आसान तरीका नाथूराम गोडसे को कोसना रहा है I लोग नाथूराम गोडसे या उसके पैरोकार संगठन को भला-बुरा कह कर अपनी तमाम जिम्मेदारियों से खुद को मुक्त महसूस करते हैं I जो खुद की कमजोरियों को ढकने का सबसे आसान तरीका है I ऐसा कर के लोग गांधी को एक व्यक्ति मात्र के रूप में स्थापित करने की करते हैं और अनायास ही उनके विरोधियों का काम आसान कर देते हैं I सच तो यह है कि अपने जीवन में भी ऐसे तत्वों पर उन्होंने ऊर्जा खर्च नहीं की I सावरकर, गोवलकर जैसे लोगों से उनके संपर्क, संवाद के बहुत कम उदाहरण है जो अप्रत्याशित नहीं है I दरअसल गांधी सत्य, अहिंसा, सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुंबकम् पर आधारित भारतियों के मूल स्वभाव और अपने विचारों की ताकत से आश्वस्त थे Iमुक्षे लगता है कि उनका यह आकलन हमारे सामाजिक और धार्मिक चरित्र के अनुसार पूर्णतः सही नहीं था ?
माना जाता है कि उन पर गोली चलाने या चलवाने वाले लोग उनकी हत्या के साथ ही उनसे बड़ी लड़ाई हार गए थे ?मैं इससे पुरी तरह सहमत नहीं हो पाता क्योंकि कट्टरपंथी विभाजनकारी ताकतों को इस बात का अहसास तब से लेकर अभी तक है और इसलिए वे एक तरफ तो खुद को नाथूराम गोडसे से दूरी दिखाने की कोशिश करते हैं तो दूसरी तरफ पाकिस्तान को धनराशि देने की जिद जैसी तमाम मनगढ़ंत प्रोपगेंडा द्वारा उनकी हत्या को जायज बताने की कोशिश भी करते हैं Iउनको हारी हुई लड़ाई यदि आज जीत में बदलती दिख रही है तो इसके पीछे इनके प्रयासों से ज्यादा घर्मनिरपेक्ष और समाजवादी ताकतों की अकर्मण्यता ह्रै।आज स्थित यह है कि वे घार्मिक सार्माज्यवादी ताकतों के पक्ष में खडे दिखते है।I व्यक्ति पूजा की अपनी कमजोरियों और ऐसा होने देने की साजिशों के कारण धार्मिक उन्मादी, अमानुषिक सोच वाली ताकतों को यह मौका दे दिया है कि वे इस राष्ट्र के पूरे स्वरूप, अस्तित्व को बदलने को आतुर हैं I
गांधी नहीं चाहते थे कि उनकी विचारधारा, उनके उसूल, उनके रास्तों के बजाय उनकी महत्ता स्थापित की जाये I चौक-चौराहों पर लगी गांधी की मूर्तियों के सामने जब किसी दलित, अल्पसंख्यक या कमजोर तबके के लोगों का उत्पीड़न होता है तो यह गांधी की सबसे बड़ी तौहीन होती है I उस वक्त नाथूराम गोडसे के पाप में विशेषरन्प से संविघान के घोषित रक्षकों की भागीदारी भी शामिल हो जाती है I किसी भी अमानवीय अत्याचार, आतंक के खिलाफ प्रतिकार करने के बजाय जब वे चुप/ भागीदार रहते हैं तब वे गांधी के हत्यारों की मदद कर रहे होते हैं I व्यक्तिगत जीवन में सहनशीलता, सहभागिता, सामंजस्य और सत्य को चुनने के बजाय जब वे इसके ठीक उलट रास्तों को चुनते हैं तब भी वे नाथूराम गोडसे के भागीदार नही हो जाते हैं ?
क्या गांधी को व्यक्ति भर या ईश्वर दोनों में से कुछ भी बनाने, साबित करने का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रयास उनके ही उसूलों, विचारधारा को नष्ट करना नहीं है ? गांधीवादी यदि वाकई कृतघ्न नहीं हैं, वाकई उनके विचारधारा में विश्वास रखते हैं तो उन्हें, उनके जीवन को समग्र रूप से समझने की आवश्यकता है I अन्याय, अनर्थ के खिलाफ प्रतिकार करने के अपने अधिकार और कर्त्तव्य को अंगीकार करने की आवश्यकता है I प्रतिकार का अर्थ सिर्फ सड़क पर उतरना कतई नहीं होता, जो जहां भी है, जिस भी स्थिति में हैं अपनी सुविधानुसार प्रतिकार के रास्तों का चयन कर सकते हैं I
30 जनवरी की पिस्तौल लेकर भारी पुलिस बल की मौजूदगी में सार्वजनिक तौर से आंतकित करने की घटना से साबित हो गया की आजादी के 72 साल बाद भी देश वहीं खडा हैं।30 जनवरी 1948 को भी दिल्ली में गोली चली थी और 30 जनवरी 2020 को भी ।यानि बीते सात दशक से सिर्फ गांधी के पीछे पड़े हैं और लगातार गोडसे ,कसाव और जिन्ना पैदा हो रहे हैं
देश में नई सदी में भी सब कुछ पुराना हो रहा है। चुने हुए नेता -'गोली मारने का सार्वजनिक आव्हान कर देश कोई क़ानून और व्यवस्था को ही नहीं हमारी न्यायप्रणाली की भी धज्जियां उड़ा रहे हैं,लेकिन उनके लिए सजा का कोई प्रावधान नहीं।क्योंकि सत्ता का उन्हें मौन समर्थन प्राप्त हैऔर वर्दी वाली पुलिस मूक दर्शक खड़ी है।चुनावों जीतने के लिए अब जब कुछ बाकी नहीं रहा तो नफरत का जहर फैलाना शुरू कर दिया गया।विकास/फिकास सब भाड़ में झौंक दिए?
दिल्ली में सरेआम गोली चलाये जाने की वारदात पर सियासत हो रही है ,टीवी के परदे पर बहसें चल रहीं हैं,,बेशर्मी के साथ तर्क-कुतर्क किये जा रहे हैं ।समझ में ही नहीं आ रहा की हम कौन से भारत में जी रहे हैं ?जिस देश में सत्ता पोषित हिंसा होने लगे उस देश का क्या भविष्य होगा ?इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है । इसलिए मौन रहने के बजाय हर स्तर पर प्रतिकार की जरूरत है। दुनिया बदल रही है लेकिन हम नहीं बदल रहे ।हम बदल भी नहीं सकते,क्योंकि हम विश्व गुरू जो है! हम जैसे थे,वैसे ही ठीक हैं ।हमें उम्मीद थी की इक्कीसवीं सदी में जो पीढ़ी आएगी वो एक नए जज्बे का प्रतिनिधित्व करेगी लेकिन उसमें भी जहर भरपुर है।लगता है की अब देश को एक और पीढ़ी का इन्तजार करना पड़ेगा जो विज्ञान और ज्ञान तथा मानवता से ओत-प्रोत पीढ़ी होगी।सोचता हूँ पीढ़ियों को जहरीला बनाने वालों को समय माफ़ करेगा या नहीं लेकिन इतना.तय है कि जनता तो माफ़ नहीं ही करेगी ?
*बुघवार मल्टीमीडिया नेटवर्क