अपने ही देश में हिन्दी भाषियों को  शरणार्थी बनांने वालों होश में रहो

अपने ही देश में हिन्दी भाषियों को 
शरणार्थी बनांने वालों होश में रहो
          कृब्ण देव (केड़ी) सिंह
 भोपाल। निज तौर पर कभी भी मेरा चिंतन  और व्यवहार जातिवादी और साम्प्रदायवादी  नहीं रहा लेकिन सामाजिक न्याय का पक्षघर व हिन्दु घर्म में व्याप्त कुरीतियों का हमेशा विराधी रहा है।मेरी झ्सी मानसिकता के कारण मुक्षे कई समाज सुघारकों और क्रातिकारियों के विचारों और कथन ने ध्यान खीचा है।आज जब कोरोना नामक आफत के कारंण दिल्ली में कार्यरत लारवों हिन्दी भाषियों और विशेषकर पुरावियों को.षडयंत्र पूर्वक शरणार्थी बनाकर दंर - दर ठोकरें खाने के लिए विवश कर दिया गया तब मुक्षे विश्व का प्रथम अर्थशास्त्री आचार्य चाणक्य और बिहार के अमर शहीद वलदेव वावु बहुत याद आयें। आचार्य. चाणक्य ने कहा था ॥जिस देश का राजा व्यापारी होगा उस देश की प्रजा भिखारी होगा॥ इसी तरह अमर शहीद बलदेव वावु ने कहा था ॥ जैसे कुत्ता मांस की रक्षा नहीं कर सकता वैसे ही बनिया और ब्राम्हण देश की रक्षा नहीं कर सकता॥ये दोनों ही वातें मुक्षे  दिल्ली से हजारों मजदूरों के पैदल अपने _ अपने मूल घोषलों में जाने के निकल पड़ने को लेकर सत्य प्रतीत हो रही है ।क्योंकि केजरीवाल और  प्रशांत किशोर पाण्डे का मिलन का पारिणाम तो  सामने आना ही था जो आ गया है ।. फिलहाल हमें मालुम है कि रोजी-रोटी की मार हम हिन्दी भाषियों और विशेषकर पुरबियों को दशकों से कचोटती है।एक सौ अस्सी वर्ष पूर्व कोलकाता के पनिया के जहाज में फिजी, मारीशस, त्रिनिदाद, टोबैगो, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका  जैसे देशों में हमारे जाने/हमें ले जाने का सिलसिला जो शुरू हुआ, वह अब भी बदस्तूर जारी है।हमारे ।संबंधी रोजी-रोटी की तलाश में अंग्रेज हकीमों की गन्ने की खेती करने सात समंदर पार तब गये थे जब रेल पर चढ़ना और समंदर पार करना नरक में जाने के बराबर समझा जाता था।लेकिन वह हमारे जिंदगी जीने का हौसला, ठेठ अंदाज था, जो हमें खींच कर ले गया ।हमें वहां धोखे से सब्जबाग दिखा कर ले जाया रहा।लेकिन पहुँचने पर पता चलता कि यहाँ तो दास प्रथा के ख़त्म होने के बाद हमें ‘नया मुर्गा’ बनाया गया है।हम पहुंचे थे सिरीरामपुर समझ कर लेकिन सूरीनाम मिला, जिसे मारीच द्वीप बताया गया था, वो असल में मारीशस था । तब हमारी वेदना बोल उठी:-


कलकते में भरती करके भेज दिए भाई,
लाये उतारे सूरीनाम में डिपू में भात खवाईl
तीन महीने में जलयान सफ़र में लाख थपेड़ खाई,
श्रीराम नगर की चर्चा करके सूरीनाम दिए पहुंचाईll
      हमारा सफ़र इतना कष्टदायक था कि महीनों के सफ़र में बड़ी संख्या में लोग जहाज में ही दम तोड़ कर मर जाते थे. वहां पहुँचने पर हमें ‘दास प्रथा के नीग्रों’ के रिप्लेसमेंट के रूप हमें देखा गया था. लेकिन पुरबियों ने कैरेबियाई द्वीपों को अपने खून-पसीनों से सींच कर भारत से भी संपन्न मुल्क बना दिया।तमाम  कैरिबियन द्वीपों पर अपना परचम लहरा दिया।जिसे देख कर तमाम हिन्दुस्तानियों को गर्व होता है।लेकिन इस सफ़र में मिले घाव, हमारे स्वाभिमान को बड़ी ठेस पंहुचा 
  माफ़ कीजियेगा, हमारे स्वाभिमान को ठेस अब अपने ही मुल्क में पहुच रहा है।चुकी अधिकतर मजदूर हिंदी पट्टी से ही होते है।ये दिल्ली, एनसीआर की धमनियों के रक्त है। लेकिन ये इतने कमजोर है, ये इतने गरीब है कि इनके पास दो जून की रोटी नहीं है साहब! पेट तो कुत्ता भी पालता है, इनके पास दो सांझ का अनाज होता तो ये कोरोना संक्रमण के डर के बावजूद सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा तय करने के लिए जयपुर या दिल्ली नहीं छोड़ते. सवाल लॉक डाउन के बीच बदइंतजामी का ही नहीं है. सवाल मजदूर वर्ग के आर्थिक दुर्दशा का है।अब समय आ गया है कि अब तय हो कि एक प्रोफ़ेसर की तन्ख्वाह डेढ़ लाख है तो मजदूर की भी आय सम्मानजनक हो। दुनिया के खुशहाल देशों, फिनलैंड, नार्वे,  की तरह भारत में भी मजदूर-अफसर के बीच आनुपातिक रूप से आय का निर्धारण हो। यह पूरे देश के मेहनतकश खासकर के हम पुरबियों के स्वाभिमान का प्रश्न है.
                           घर वापसी की पीड़ा 
        राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से प्रवासी मज़दूरों का बड़ा हुजूम घर वापसी के लिए दिल्ली की सरहद पर उमड़ते  देखा हूँ ।इन्हें तरह तरह की संज्ञाए दी गई हैं।  कारण लॉकडाउन बताया जा रहा है।इन का भी कमोबेस यही बयान है कि लॉकडाउन से काम -धाम बंद हो गया है दुकान और फ़ैक्ट्री मालिकों ने अपने अपने ठिकानों पर ताला बंदी कर दी ।अब कहीं काम नहीं है तो पैसे भी नहीं ।जहां ये किराए पर रहते थे वहाँ किराया नहीं देने के कारण मकान ख़ाली करना पड़ा,।किसीके पैसे मालिक ने पूरे नहीं दिए तो किसी के पूरे पैसे लेकर ठेकेदार ग़ायब ।
देश की राजधानी में रोज़ी - रोटी और एक छत की कमी हो गयी तो उन्होंने अपने गाँव लौटना मुवासिब समझा और इसलिए वे अपनी गठरी मोटरी सम्भालकर ये बिना किसी साधन की परवाह किए 200 से हज़ार किलोमीटर का सफ़र पैदल ही पूरा करने निकल पड़े ।ये इतनी अधिक संख्या में जुटने लगे आनंद विहार टर्मिनल से ग़ाज़ीपुर नेंशनल हाइवे 24 तक जैसे लगा की कोई रैली निकलने वाली हो।टीवी चैनल्स के कैमरे घूमे तब दिल्ली सरकार ,यूपी सरकार और बिहार सरकार की तंद्रा टूटीं जो लॉकडाउन मेंटेन कराने में ध्यान मग्न थी।और,हाँ केन्द्र सरकार का भी ध्यान गया कि ये सब तो लॉकडाउन की ऐसी तैसी कर देंगे।उधर हरियांणा सरकार भी मुस्तैद हुई पंजाब और हरियाणा से विकल रहे प्रवासी मज़दूरों को रोकने के लिये । छोटी -बड़ी सारी सरकारों ने एक स्वर से अपील करना शुरू किया कि जो जहां हैं वहीं रुक जाये सरकार उनके रहने और खाने की व्यवस्था कर रही है। वरना कोरोना  वाइरस के चपेट में सभी आ जाएँगे और दूर दूर तक से महामारी फैल जाएगी। इस अपील पर इनका जवाब था कि कोरोना तो जब मारेगा तब मारेगा मगर उसके पहले ही हम भूख से मर जाएँगे।
             इन असंगठित मज़दूरों -कामगारों की हम राजनीतिक पहचान नही कर सकते ,लेकिन बहुतायत लोग पूर्वांचल के लोग हैं,जिन्होंने अपनी अपनी कोठियों ओर फ़्लैटों में आराम से बैंठकर लॉकडाउन को सफल बनाने का बीड़ा उठाने वालों की ज़िन्दगी आसान बना रखी थी ।ये तो सच है कि ये अब निकल चुके हैं दिल्ली छोड़कर और हाल -फ़िलहाल तो लौटने से रहे ।क्योंकि जो सरकारें इन्हें रोकने और रोटी देने का वादा कर रही हैं ,वो कितने दिनों तक इनको कोरंटाइन शिविरों में रख सकेंगी ।अधिक से अधिक 10 दिन 20 दिन या महीने भर , जबतक कोरोना का रोना बंद नहीं हो जाता ! उसके बाद फिर इनकी ज़िन्दगी इन्हें किसी भूले मुसाफ़िर की तरह चौराहे पर लाकर खड़ा कर देगी।जब पहलीबार कोरोना की चर्चा  देश में आम  हुई थी ,तभी से एक असहजता सी महसूस होने लगी थी और जब मोदी जी ने लॉक डाउन की घोषणा टीवी पर की उसी समय इन प्रवासियों के घरों से इनके मोबाइल पर घंटियाँ बजने लगीं।किसी की माँ ,किसी क़ी पत्नी , किसी के पिता सबकी  एक ही गुहार कि तुम घर आ जाओ ,हमें कुछ नही चाहिये ,हम तुमको सिर्फ़ ज़िन्दा देखना चाहते हैं।ये बातें किसी ने रोकर कही ,किसी ने गिड़गिड़ाकर अपनी सौगंध देते हुए तो किसी ने फ़रमान के तौर पर कही । इन भावुक अपीलों ने पीएम मोदी जी की अपील पर पानी फेर दिया।रही सही कसर योगी आदित्यनाथ और केजरीवाल की परिवहन की व्यवस्था करने की घोषणा ने कर दिया।
          बिना तैयारी का लाक डाउन 
      भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने अपनी पसंदीदा समय रात ८ बजे घोषणा की आज रात १२ बजे से देश मे कोरोना संकट से निपटने के लिये पूरा देश लाक डाउन रहेगा ।जनता से अपील की कि वो सहयोग करे और जनता कर रही है। पर जो हालात पैदा हुये उससे लगता है सरकार और उसमे बैठे लोगों ने जनता का विना ध्यान  रखे और बिना किसी सुनियोजित कार्य योजना के एकाएक घोषणा कीगई जिसके फलस्वरूप:
१. सभी आवागमन के साधन बंद कर दिये ।करना ये था कि बच्चों को जनरल प्रमोशन देते और ट्रेनें फ़्री कर देते जिससे घनी आबादी वाले क्षेत्रों से जनता अपने घरों तक पहुँच जाती ।
२.देश के शहरों मे मज़दूर काम करने आता है दिहाडी वाला या नौकरी करने वाला इनकी संख्या ४५ करोड़ है जिसमें दिहाडी वाला मज़दूर ९ करोड़ है वो फँस गया। पैसे की कमी क्योंकि काम बंद थे और ये लाँक डाउन भुखमरी के हालात मे वो अपने घरों की ओर भूखा प्यास ५०० ७०० किमी दूर बच्चों को कंधे पर बिठा गर्भवती महिलायें भी चल पडी ।सरकार ने भरे पेट फ़्लेटो बंगले मे रहने वाले थाली पीटने वालों को देख अपनी सरकार का विश्वाश माना ।मज़दूरों पर क़हर की रही सही कसर पुलिस का दुर्व्यवहार और पिटाई ने पूरी कर दी ।इसके बाद जो बची कसर थी वो नगर पालिका वालों ने कैमिकल से सेनिटाईज कर पूरी कर दी । आख़िर इस वर्ग का सरकार से उठा विश्वास है जो ये पलायन हुआ। 
३.गेहू की फ़सल पूरे देश मे कटने को तैयार खड़ी ही है और प्रधानमंत्री मन की बात मे व्यस्त रहते है।मंडियों मे गेहूँ ख़रीद की तैयारी शून्य है मौसम भी किसानों के अनुकूल नही है। बस बाते ही वाते?
४.सरकार कहती है बैंक और एटीएम खुले है पर बैंक जा नही सकते एटीएम मे पैसा नही है 
।सामान्य रूप से क्षूठ पर क्षूठ?
५.पलायन कर रहे मज़दूरों को आगे कब काम मिलेगा?  उससे बड़ा सवाल यह संख्या ४५ करोड़ के लगभग है ?
६. देश के हालात की जानकारी को छुपाया जा रहा है मीडिया का रूख अब पाकिस्तान से हटकर चीन हो गया 
: जो लोग अपने पूरे जीवन का सारा हासिल सिर पर लादकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के लिए निकल पड़े हैं, उनके बारे में एक बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि उन्हें न तो सरकार से कोई उम्मीद है, न ही समाज से?वे सिर्फ़ अपने हौसले के भरोसे अब तक ज़िंदा रहे हैं, और सिर्फ़ उस हौसले को ही जानते-मानते हैं!


दार्शनिक कह रहे हैं कि कोरोना के गुज़र जाने के बाद दुनिया हमेशा के लिए बदल जाएगी क्योंकि कोरोना का असर  ज़्यादा गहरा है इसलिए दुनिया भर में बदलाव होगें?लेकिन ।भारत में हो सकने वाले बदलावों को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम दो तस्वीरों को अपने दिमाग़ में बिठा लें, एक तस्वीर आनंद विहार बस अड्डे पर उमड़े मजबूर लोगों के हुजूम की, और दूसरी तस्वीर अपने ड्रॉइंग रूम में तसल्ली से दूरदर्शन पर रामायण देखते लोगों की, जिनमें केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं।


जिस पदयात्रा पर 'ग़रीब भारत' निकल पड़ा , वह सरकार से ज़्यादा, हमारे समाज के लिए सवाल है. दुनिया भर में क्या हो रहा है, विज्ञान की क्या सीमाएँ हैं, चीन की क्या भूमिका है, यह सब थोड़ी देर के लिए परे रखिए।बतौर समाज हम ऐसी बहुत सारी तस्वीरें देखते हैं, थोड़ी देर के लिए हमें बुरा-सा लगता है, हम भावुक होकर थोड़े चंदे-डोनेशन के लिए भी तैयार हो जाते हैं, लेकिन हमारी सामूहिक चेतना में महाराष्ट्र के किसान, सीवर साफ़ करने वाले या साइकिल पर लाश ढोने वाले 'दूसरे' लोग हैं, वो हममें से नहीं हैं, वे बराबर के नागरिक नहीं हैं.।हम की परिभाषा है-- फ़्लैटों में रहने वाले, बच्चों को अंग्रेज़ी मीडियम में पढ़ाने वाले, राष्ट्र से प्रेम की बातें करने वाले, पाकिस्तान की बैंड बजाने वाले, जल्दी ही वर्ल्ड क्लास देश बन जाने का सपना देखने वाले, अतीत पर गर्व करने की कोशिश करते और अपने उज्ज्वल भविष्य को लेकर आश्वस्त लोग ।इन लोगों की देश की कल्पना में वो लोग शामिल नहीं हैं जो आबादी में अधिक हैं, लेकिन हाशिए पर हैं।रोज़ी रोटी की मुसीबत में उलझे, दिन में कमाने और रात में खाने वाले लोग, पुलों के नीचे, झुग्गियों में रहने वाले, अनपढ़ लोग ये सब दूसरे हैं, अन्य हैं,ये लोग भी 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' के सफ़र में शामिल हैं।
सोशल मीडिया पर हंगामा मचने के बाद, टीवी चैनलों ने पैदल जाते लोगों की ख़बर पर ध्यान दिया, इन ख़बरों में दो-तीन चिंताएं थीं-- अरे, इस तरह तो लॉकडाउन फ़ेल हो जाएगा, वायरस फैल जाएगा, ये कैसे ग़ैर-ज़िम्मेदार लोग हैं, इन लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए था, क्या वे जहाँ थे, वहीं पड़े नहीं रह सकते थे. यानी चैनलों की चिंताओं में फिर भी उन लस्त-पस्त लोगों की तकलीफ नही थी


            सरकार और समाज
हम भारत के लोग बातें चाहें जितनी भी कर लें, जैसी भी कर लें, दरअसल, हम फ़ितरत से ग़ैर-बराबरी में गहराई से यकीन रखने वाले लोग हैं. ग़रीबों,दलितों, वंचितों और शोषितों के प्रति जो हमारा रवैया है, उसी की परछाईं सरकार के रवैए में दिखती है, सरकार  जानती है कि किस बात पर वोट कटेंगे, और किस बात पर वोट मिलेंगे
विदेशों में फंसे समर्थ लोगों को लाने के लिए विशेष विमान उड़ाए जाते हैं, पैदल चलते हुए लोगों का हाल तीन दिन तक सोशल मीडिया पर दिखाए जाने के बाद, बड़े एहसान की मुद्रा में कुछ बसें भेज दी जाती हैं. बाद में लोग ये भी कहते हैं कि बसें भेजना ग़लती थी, क्योंकि लोग मुफ़्त यात्रा के लोभ में टूट पड़े जिससे वायरस फैलने का ख़तरा बढ़ गया।उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहले मुख्यमंत्रियों में थे जिन्होंने दिहाड़ी मज़दूरों के लिए आर्थिक राहत की घोषणा की थी, लेकिन यह वही यूपी है जहाँ पीलीभीत के एसपी और डीएम घंटियाँ बजाते हुए शाम पाँच बजे का पवित्र जुलूस निकालते हैं जिसमें ढेर सारे लोग पीएम के आह्वान का ग़लत मतलब निकालकर सड़कों पर उतर आते हैं।
यह वही राज्य है जहाँ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी काँवड़ियों के पैर दबाते हुए गर्व से फ़ोटो खिंचवाते हैं क्योंकि इससे प्रमोशन मिलने के आसार बढ़ जाते हैं, यह वही राज्य है जहाँ हेलिकॉप्टर काँवड़ियों पर पुष्पवर्षा करते हैं और अयोध्या के घाटों पर सैकड़ों लीटर तेल से लाखों दिए जलाए जाते हैं?क्या सरकार को पता नहीं था कि जब दिहाड़ी बंद हो. जाएगी तो गरीब मजदूर अपने गाँव की ओर जाने पर मजबूर होगा. कई पढ़े-लिखे लोग इस तकलीफ़देह सफ़र को 'कोरोना पिकनिक' बता रहे हैं।
अगर महामारी फैली तो लोग बहुत आसानी से ग़रीबों को दोषी ठहराएँगे कि 'बेवकूफ़ लोगों की वजह से' वायरस फैल गया, वरना हम तो अपने अपार्टमेंट में बैठकर रामायण देख रहे थे और माता रानी के लिए घी के दिए जला रहे थे. वो ये नहीं पूछेंगे कि 'वायरस फैलाने वाले लोगों' को 21 दिनों तक ज़िंदा रखने के क्या इंतज़ाम किए गए, और उन्हें कब और किसने इन इंतज़ामों के बारे में बताया? प्रधानमंत्री ने मेडिकल सर्विस में लगे लोगों का शुक्रिया करने के लिए शाम पाँच बजे थाली और ताली बजाने की अपील की, उसमें एक बात साफ़ थी कि उनके दिमाग में जो इंडिया है उसमें सब लोग बालकोनी और छतों वाले घरों में रहते है।
           ग़ैर-बराबरी को ईश्वरीय विधान मानते हैं, ग़रीबों की थोड़ी-बहुत मदद शायद कर भी दें, लेकिन दिल से हर इंसान को एक बराबर नहीं मानते,  यही हमारा सच है।
इसकी जड़ें वर्ण व्यवस्था में हैं जो लोगों के वर्गीकरण के बुनियादी सिद्धांत पर चलता है, और हमारी सामंतवादी मानसिकता भी इसके लिए ज़िम्मेदार है.मजबूर मेहनती लोगों के सैलाब में हर जाति के लोग होंगे, यहाँ जातिगत भेदभाव की बात नहीं की जा रही है, हालाँकि ज़्यादातर मज़दूर पिछड़ी जातियों के ही होंगे. यहाँ हर तरह के भेदभाव की बात की जा रही है जो हमारे समाज में सहज स्वीकार्य हैं, हममें से ज़्यादातर लोग यही कहते-मानते पाए जाते हैं कि पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती, ये भेदभाव को स्वाभाविक बनाना है, उसमें बदलाव की बात कम ही लोग सोचते हैं, और इस व्यवस्था में जो मज़े में हैं, वो भला क्यों चाहेगा बदलाव
यह मुश्किल समय है, ऐसी बातें चुभ सकती हैं, लेकिन कहना होगा कि भारत की तमाम समााजिक-सांस्कृतिक सुंदरता में विराट हिंदू संस्कृति का सौंदर्य अटा पड़ा है, लेकिन साथ ही, भारत की सामाजिक कुरुपता में भी उसकी एक गहरी भूमिका है.


यह समय कोसने का नहीं, सोचने का है, बहुत गहराई से बहुसंख्यक समाज को अपने सामाजिक व्यवहार पर ग़ौर करना चाहिए, हर आलोचना पर तुनक जाने या महानता की कथाओं में फँसे रहने की जगह।कोरोना ने एक बार फिर दिखाया है कि सरकार-समाज के निर्णयो प्रतिक्रियाओं में वर्ण व्यवस्था की एक गहरी छाया है।क्या बतौर समाज हम बदलने को तैयार हैं, जैसे हर एक वोट की कीमत एक बराबर है, वैसे ही हर नागरिक की गरिमा भी एक बराबर हो सकती है? क्या हम इस चर्चा के लिए तैयार हैं?


ऊँची से ऊँची मूर्तियाँ लगाने की जब बात होगी तो क्या आपको याद रहेगा कि देश में प्रति हज़ार व्यक्ति कितने डॉक्टर हैं, प्रति हज़ार व्यक्ति कितने बिस्तर अस्पतालों में हैं, कितने लोग कुपोषित हैं, कितने लोगों को पीने का पानी नहीं मिल रहा है?कोराना जब पूरी दुनिया में फैला हुआ था, भारत में भी फैल रहा था तब काग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गॉधी जनवरी से ही ट्विटर पर लगातार चेतावनी और सुक्षाव दिये जा रहे थे लेकिन हम ट्रंप के स्वागत में मगन थे और मध्य प्रदेश में सरकार बनाने का जश्न देख रहे थे लेकिन तब ये बातें हमें फूहड़ नहीं लग रही थीं?
बुघवार बहुमाध्यम समूह