बिहार की राजनीति में नेतृत्व का संकट

बिहार की राजनीति में नेतृत्व का संकट
                 कृष्ण देव सिंह
             भारतीय इतिहास के पन्ने यू तो बिहार के सामाजिक ,सांस्कृतिक व राजनीतिक नायकों से भरा पड़ा है लेकिन वर्तमान राजनैतिक हालातों के मद्देनजर दुसरी पंक्ति के योग्य नेतृत्वक्ताओं के चेहरो पर गहरा कुहरा छाया हुआ है । और हालात ऐसे बनते नजर आने लगे हैं कि आने वाले वक्त में नेतृत्व का गंभीर संकट उत्पन्न हो जावे । अगर ऐसा हुआ तो सर्वाधिक खामियाजा बिहार की राजनीति की घुरी बनी समाज' / जाति विशेषकर कुर्मी , यादव और अल्पसंख्यकों को भुगतनी पडेगी और उसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार अगर किसी को माना जावेगा तो वे है विहार के मुख्यमंत्री व जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार तथा कांग्रेस के वयोवृद्ध विधायक दल के नेता . सदानन्द सिंहजी ।
       1990 में लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने के दौरान रामविलास पासवान और नीतीश कुमार भी जनता दल का ही हिस्सा थे। तब से समय-समय पर बिहार में जनता दल के कुनबे से निकले नेताओं के इर्दगिर्द ही बिहार की राजनीति होती रही है। लालू यादव से गठबंधन कर कांग्रेस बिहार में दिन प्रतिदिन पतली होती चली गई। लेकिन दूसरी तरफ नीतीश कुमार के साथ भाजपा बिहार में जगह बनाने में कामयाब रही। सीधे तौर पर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व तो  मूंह नहीं खोलता है लेकिन चिर परिचित अंदाज में प्रदेश के दूसरी पंक्ति के नेताओं के लगातार 'नीतीश विरोध' पर चुप्पी भी साधे रहना भाजपा-जदयू के बीच के संभावित टकराव की तरफ बढ़ने का संकेत देता है। लेकिन बिहार में भाजपा के सामने सियासी मजबूरी यह है कि उसके पास नीतीश कुमार को टक्कर देने लायक कोई नेता नहीं है। 
      दरअसल बिहार में नेतृत्व संकट  के दौर से गुजर रहा है। जयप्रकाश आंदोलन के बाद बिहार में ऐसा कोई भी सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन नहीं हुआ है जिससे कोई नेतृत्व उभर कर सामने आए। यूं कहें कि बीते तीन दशक में लालू, नीतीश और रामविलास पासवान की तिकड़ी के आगे बिहार में किसी एक की नहीं चली है। घोटालों के आरोप में सजायफ्ता लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक कैरियर खत्म हो चुका है। वहीं रामविलास पासवान को लालू-नीतीश की राजनीति ने कभी भी जन नेता बनने की जगह  हीं नहीं दिया,अब तो पासवान को उम्र भी साथ नहीं दे रहा है। दूसरी तरफ यह जगजाहिर है कि भाजपा में सुशील कुमार मोदी को भी एक बड़ा धड़ा जो 'सवर्ण मुख्यमंत्री' के पक्ष में है, वह नेता मानने को तैयार नहीं रहा है।
            जदयू इन परिस्थितियों को जानती है। इसीलिए उनके प्रवक्ता समय-समय पर 'नीतीश नहीं तो कौन'  के जुमले उछाल कर विपक्ष पर हमले करते रहते है। नीतीश की राजनीति  बिहार केन्द्रित है लेकिन वे राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी प्रासंगिकता को कम नहीं होने देना चाहते है। झारखंड में सभी 82 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा केमायने यह है कि जदयू की दृष्टिकोण से देश भर में कमजोर हो चुका विपक्ष 'नीतीश हित' में नहीं है। इस स्थिति को पाटने के लिए नीतीश अपेक्षित ताकत की तलाश में है, ताकि समय आने पर राष्ट्रीय भूमिका निभा सकें। 69 साल के हो चुके नीतीश केन्द्र सरकार में लंबे समय तक वरिष्ठ मंत्री रहने के बाद बिहार में डेढ़ दशक तक मुख्यमंत्री रहे है ।संभावना बनी है कि नीतीश बिहार में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के श्रीकृष्ण सिंह के रिकॉर्ड को तोड़ देंगे। लालू और नीतीश दोनों के दोस्त रहे राजद उपाध्यक्ष शिवानन्द तिवारी के ताजा बयान से भी बिहार में नीतीश कुमार के महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी को चुनौती देने लायक एकमात्र नेता बताया है। नीतीश कुमार की कार्य शैली भी कमियों को सुधारने और माइक्रो लेवल पालिटिकल मैनेजमेंट की है।  जाल ही नही बिछाया है, बल्कि  पंचायतों में वार्ड स्तर के जन प्रतिनिधियों को भी वितीय अधिकार देकर राजनीतिक पैठ बनाने वाले नीतीश कुमार बिहार में विकास के साथ साथ सामाजिक स्तर पर भी बारीकी से कमजोरियों को दूर करने की कोशिश लोकसभा चुनाव में ही सर्वाधिक अति पिछड़ा वर्ग के 6 उम्मीदवार उतार कर किया है। नी
        कभी लालू प्रसाद यादव के बारे में 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू' का जुमला प्रचलित था। किन्तु 2005 में बिहार की जनता ने 14 साल के 'लालू युग' को उखाड़ फेंक कर नीतीश कुमार को बागडोर सौंपी।  नीतीश कुमार भी तमाम सर्वे में देश के लोकप्रिय मुख्यमंत्री की रैंकिंग में शीर्ष स्थान अथवा आसपास ही रहे है। यह नीतीश की छवि ही है, जिसकी बदौलत वे तमाम विरोधियों को  मात देते हुए बिहार की गद्दी पर लंबे समय तक राज करना चाहते हैं।
               भगवा ब्रिगेड की तरफ से मुख्यमंत्री पद पर कब्जा करने की हसरत लंबे अरसे से  हैं। अब समय. भी बदल चुका है ।भारतीय जनता पार्टी देश के 19 राज्यों में सरकार चला रही है और केंद्र में विशाल बहुमत से देश को मन मुताबिक हांक रही है। इन परिस्थितियों में कभी एनडीए को हांकने वाले नीतीश कुमार अंदर ही अंदर असहज महसूस करते होंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन बिहार की सामाजिक परिस्थितियां नीतीश को मजबूर करती रही है कि वो किसी न किसी गठबंधन के मोहताज रहे है। हालांकि सुशील कुमार मोदी भी ऊहापोह को दूर करने के लिए 2020 में नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने का बयान देकर सबकुछ ठीक  होने का संदेश देने की कोशिश कर चुके हैं। लेकिन श्री स मोदी का यह बयान उनके निजी राजनीतिक हित में भी हो सकता है। 
         इस बार राजद की करारी हार, लालू यादव की अनुपस्थिति नीतीश को ऐसा लगता है कि 'यादव वर्चस्व' की राजनीति के दिन लद रहे है। ऐसे में नीतीश कुमार की नजर अल्पसंख्यक मतदाताओं पर है।अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ को काम करने के लिए तमाम संसाधन मुहैया कराया जा रहा है। किशनगंज लोस चुनाव में जदयू उम्मीदवार सैयद मो. अशरफ को तीन लाख से अधिक मत प्राप्त होना जदयू के लिए उत्साहजनक रहा है दरभंगा के पूर्व सांसद अशरफ अली फातमी को जदयू में शामिल कराया है ।गौरतलब हो कि लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद भी तेजस्वी यादव के लंबी अनुपस्थिति के बीच अब्दुल बारी सिद्दीकी के साथ साथ दर्जनों राजद विधायकों के जदयू के संपर्क में होने की खबर उड़ी भी। इसके बावजूद भी विधानसभा चुनाव में नीतीश भाजपा से अलग होना चाहेंगे इसकी संभावना ही कम हो लेकिन लाख टके का यक्ष प्रश्न तो शेष ही रहेगा कि नीतीश कुमार के वाद कौन. ?( बुधवार समाचार)