राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद कीआड़में ऊंची  जातियों के वर्चस्व बचाने का प्रयास

राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद कीआड़में ऊंची 
जातियों के वर्चस्व बचाने का प्रयास
       कृब्ण देव सिंहराष्ट्रवाद और हिन्दुवाद कीआड़में ऊंची 
जातियों के वर्चस्व बचाने का प्रयास
       कृब्ण देव सिंह
     क्या हिन्दुसमाज में कथित उंची जातियों के वर्चस्व को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?क्या हिन्दुओं में उंची जातिवाद दम तोड़ने लगा है?क्या यह सही है कि हिन्दुओं में उंचे जातिवाद, राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद की आड़ में वर्चस्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है?लोग झ्स संघर्ष को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए हमले से भी कुछ लोग जोड़कर देख रहे है। उनका मानना है कि  जितना जल्दी हो सके सबकों इस क्रोनोलॉजी को समक्षने की जरूरत है। 
      सबसे पहले जेनएयू पर हुए हमले पर जश्न मनाने वालों के सरनेम जानने की जरूरत है ।क्या यह सही नहीं है कि आकांन्ताओं में आघिसंख्य "शुक्ला, दुबे, चतुर्वेदी, जादौन, तोमर, चौधरी, राजपूत, गुर्जर, पांडे, त्रिवेदी, त्रिपाठी, सिंह, मिश्रा, शर्मा" आदि अपनाम घारी ही  थे? यह सत्य है तो सामाज शास्त्रियों को अपना द्वष्ट्रिकोण बदलने की जरूरत हैं क्योंकि  राष्ट्रीयता और हिन्दुवाद की आड़ में उंची जातियों का वर्चस्व कायम ररवने के इस तरह के प्रयासों की गंभीर प्रतिकिया भी देखने को मिल सकता है? झ्सपर भी गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।क्योंकि जानकार प्रश्न कर रहे है कि आक्रांता अहीर क्यों नहीं है? जाटव क्यों नहीं है? कुमार क्यों नहीं है? वाल्मीकि क्यों नहीं है? नाई क्यों नहीं है? धोबी क्यों नहीं है? मीणा क्यों नहीं है?
         सामाजिक न्याय पुरोघायों की नजर मं जेएनयू में घटी झ्स घटना को वे देश का सड़ चुका "अपरकास्टवाद" हिंदूवाद के भेष में आपके घरों, विश्विद्यालयों में पहुंचाने का गंभीर प्रयास है । यह राष्ट्रवाद और हिंदूवाद की आड़ में ये लड़ाई, ऊंची जातियों के वर्चस्व को बचाने के अंतिम प्रयास भर हैं!जिसमें उन्हें कुछ कुछ सफलता मिल रही हैं क्योंकि ऐसा भाजपा और विशेषकर रास्ट्रीय स्वंम सेवक संघ चाहता है। केन्द्र में भाजपा नित सरकार है ,झ्सलिए वे भी उंची जातिवाद को कायम रखना चाहती है।
         सामाजिक न्याय के समर्थकों का मानना है कि संचार माध्यमों  के सारे कर्मचारी ब्राह्मण हैं, सारे  सम्पादक ब्राह्मण जाति से हैं. इस तरह 90 प्रतिशत समाचार माध्यमों के कर्मचारियों पर ब्राह्मणों और सर्वर्णो का कब्जा है।टीवी चैनलों के मालिक बनिया और जैन हैं, व्यापारी हैं, कारोबारी हैं, इसके अलावा एक बात पर और गौर करने की जरूरत है कि जेनएयू छात्रों को पीटने के लिए डीयू से जो टोली भेजी गई, उसमें अधिकतर "जाट, गुर्जर और राजपूतों" की टोली थी?हलांकि मुक्षे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि संचारमाध्यमों में अब समाजिक न्याय के समर्थको का भी प्रवेश होना शुरू हो गया है।
      आज सरकारों द्वारा लगातार लघु पत्र-पात्रिकाओं पर लगातार दमन किया जा रहा है ताकि वे वंद हो जावे क्योंकि वे अक्सर जमीनी सच्चाई की रिर्पोट प्रकाशित कर देते है। झ्ससे अकसर उंची जाति के लोग प्रभावित होते हैं। बडे बडे समाचार समुह के मालिक-निवेशक "बनिया" हैं, कर्मचारी-प्रबंधक "ब्राह्मण" हैं, और लठैत-सिपाही "जाट-ठाकुर-गुर्जर" हैं।यह गठजोड़ ही आधुनिक भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था है।इसी तरह के गठजोड़ द्वारा एक पूरे समाज पर वर्चस्व स्थापित किया जाता है.
      जेनएयू की घटना को एक घटना भर से जोड़कर नहीं देखना चाहिए कि अचानक से कोई नकाबपोश आए, लड़कियों पर हमला किया और चले गए, बल्कि ये घटना एक प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसका यह  एपिसोड भर है। "'जेएनयू छात्रों" पर' हमला इसका पहला प्रदर्शन भर है. ये बताने के लिए ये देश क्या खो चुका है?यह प्रकिया क्या है वह भी समक्षने की जरूरत है।ऊंची जातियां संख्या बल में कम हैं, इसलिए सीधे-सीधे ब्राह्मणवाद,बनियावाद,कायस्तवाद, राजपूतवाद से जीता नहीं जा सकता, इसलिए ऊंची जातियों के शिक्षकों ने "हिंदूवाद" ईजाद किया, हिंदूवाद का समर्थन करने के लिए अब कुछ संख्या में यादव जी, निषाद जी, कुमार जी भी मिल गए, "हिंदूवाद" के इस सफल प्रयोग से "सवर्णवाद" जो कि संख्या में अल्पसंख्यक था अब वह बहुमत में पहुंच गया. अब सवर्णवाद के इस बहुमत को बनाए रखने के "हिंदूवाद" अपरिहार्य और अनिवार्य हो गया. हिंदूवाद को बनाए रखने के लिए समाज का बंटवारा जरूरी है। इसके लिए दुश्मन घोषित करने में श्रम भी न लगना था और ये ऐसी लड़ाई थी जो कभी खत्म भी न होनी ।
       हिंदुओं के गरीब मजदूर,किसान, अपढ़ तबके को ऊपर-ऊपर से लगता है कि मुसलमान ठिकाने लगाया जा रहा है, बल्कि ये पूरे प्रयास अपरकास्ट अमीरों को बचाने के लिए हैं, जिसे समझना एक धर्मभीरु आदमी के लिए आसान नहीं है. जिसका खून पिया जाएगा वह गरीब और कमजोर होंगे जोकि इस देश में अधिकतर खुद हिन्दू ही हैं. उनमें भी पिछड़े, आदिवासी वंचित, मजे करेगा कौन ? उंची जातियों का अमीर वर्ग ।जबकि उंची जातियों का गरीब भी नहीं,किसान, मजदूर भी नहीं।
       ये सारे प्रयास ऊंची जातियों के एकछत्र वर्चस्व को दोबारा से स्थापित करने के प्रयास हैं. जो वर्चस्व कथित नीची जातियों, कमजोरों, मजदूरों के बच्चों के यूनिवर्सिटियों में पहुंचने से धीरे धीरे ढीला होता जा रहा था. असल में इन्हें पढ़े लिखे उन ब्राह्मणों, राजपूतों, कायस्तों, बनियाओं से भी दिक्कत है जो इनकी जातियों, वर्णाश्रम व्यवस्था को नहीं मानते. जो भेदभाव के खिलाफ लगातार लिख रहे हैं, बोल रहे हैं।यही कारण है कि सरकार बनते ही सबसे पहले दिन से ही शिक्षण संस्थानों को सबसे पहले खत्म किया जा रहा है. इसी लिए फीस बढ़ाई जाती है, इसलिए प्राइवेटाइजेशन किया जाता है. ताकि  कमजोरों, दलितों, पिछड़ों के बच्चे स्कूल न पहुंच पाएं।जेएनयू पर हुए हमले को इसी दीर्घ परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है।
*बुघवार मल्टीमीडिया नेटवर्क
     क्या हिन्दुसमाज में कथित उंची जातियों के वर्चस्व को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?क्या हिन्दुओं में उंची जातिवाद दम तोड़ने लगा है?क्या यह सही है कि हिन्दुओं में उंचे जातिवाद, राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद की आड़ में वर्चस्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है?लोग झ्स संघर्ष को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए हमले से भी कुछ लोग जोड़कर देख रहे है। उनका मानना है कि  जितना जल्दी हो सके सबकों इस क्रोनोलॉजी को समक्षने की जरूरत है। 
      सबसे पहले जेनएयू पर हुए हमले पर जश्न मनाने वालों के सरनेम जानने की जरूरत है ।क्या यह सही नहीं है कि आकांन्ताओं में आघिसंख्य "शुक्ला, दुबे, चतुर्वेदी, जादौन, तोमर, चौधरी, राजपूत, गुर्जर, पांडे, त्रिवेदी, त्रिपाठी, सिंह, मिश्रा, शर्मा" आदि अपनाम घारी ही  थे? यह सत्य है तो सामाज शास्त्रियों को अपना द्वष्ट्रिकोण बदलने की जरूरत हैं क्योंकि  राष्ट्रीयता और हिन्दुवाद की आड़ में उंची जातियों का वर्चस्व कायम ररवने के इस तरह के प्रयासों की गंभीर प्रतिकिया भी देखने को मिल सकता है? झ्सपर भी गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।क्योंकि जानकार प्रश्न कर रहे है कि आक्रांता अहीर क्यों नहीं है? जाटव क्यों नहीं है? कुमार क्यों नहीं है? वाल्मीकि क्यों नहीं है? नाई क्यों नहीं है? धोबी क्यों नहीं है? मीणा क्यों नहीं है?
         सामाजिक न्याय पुरोघायों की नजर मं जेएनयू में घटी झ्स घटना को वे देश का सड़ चुका "अपरकास्टवाद" हिंदूवाद के भेष में आपके घरों, विश्विद्यालयों में पहुंचाने का गंभीर प्रयास है । यह राष्ट्रवाद और हिंदूवाद की आड़ में ये लड़ाई, ऊंची जातियों के वर्चस्व को बचाने के अंतिम प्रयास भर हैं!जिसमें उन्हें कुछ कुछ सफलता मिल रही हैं क्योंकि ऐसा भाजपा और विशेषकर रास्ट्रीय स्वंम सेवक संघ चाहता है। केन्द्र में भाजपा नित सरकार है ,झ्सलिए वे भी उंची जातिवाद को कायम रखना चाहती है।
         सामाजिक न्याय के समर्थकों का मानना है कि संचार माध्यमों  के सारे कर्मचारी ब्राह्मण हैं, सारे  सम्पादक ब्राह्मण जाति से हैं. इस तरह 90 प्रतिशत समाचार माध्यमों के कर्मचारियों पर ब्राह्मणों और सर्वर्णो का कब्जा है।टीवी चैनलों के मालिक बनिया और जैन हैं, व्यापारी हैं, कारोबारी हैं, इसके अलावा एक बात पर और गौर करने की जरूरत है कि जेनएयू छात्रों को पीटने के लिए डीयू से जो टोली भेजी गई, उसमें अधिकतर "जाट, गुर्जर और राजपूतों" की टोली थी?हलांकि मुक्षे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि संचारमाध्यमों में अब समाजिक न्याय के समर्थको का भी प्रवेश होना शुरू हो गया है।
      आज सरकारों द्वारा लगातार लघु पत्र-पात्रिकाओं पर लगातार दमन किया जा रहा है ताकि वे वंद हो जावे क्योंकि वे अक्सर जमीनी सच्चाई की रिर्पोट प्रकाशित कर देते है। झ्ससे अकसर उंची जाति के लोग प्रभावित होते हैं। बडे बडे समाचार समुह के मालिक-निवेशक "बनिया" हैं, कर्मचारी-प्रबंधक "ब्राह्मण" हैं, और लठैत-सिपाही "जाट-ठाकुर-गुर्जर" हैं।यह गठजोड़ ही आधुनिक भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था है।इसी तरह के गठजोड़ द्वारा एक पूरे समाज पर वर्चस्व स्थापित किया जाता है.
      जेनएयू की घटना को एक घटना भर से जोड़कर नहीं देखना चाहिए कि अचानक से कोई नकाबपोश आए, लड़कियों पर हमला किया और चले गए, बल्कि ये घटना एक प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसका यह  एपिसोड भर है। "'जेएनयू छात्रों" पर' हमला इसका पहला प्रदर्शन भर है. ये बताने के लिए ये देश क्या खो चुका है?यह प्रकिया क्या है वह भी समक्षने की जरूरत है।ऊंची जातियां संख्या बल में कम हैं, इसलिए सीधे-सीधे ब्राह्मणवाद,बनियावाद,कायस्तवाद, राजपूतवाद से जीता नहीं जा सकता, इसलिए ऊंची जातियों के शिक्षकों ने "हिंदूवाद" ईजाद किया, हिंदूवाद का समर्थन करने के लिए अब कुछ संख्या में यादव जी, निषाद जी, कुमार जी भी मिल गए, "हिंदूवाद" के इस सफल प्रयोग से "सवर्णवाद" जो कि संख्या में अल्पसंख्यक था अब वह बहुमत में पहुंच गया. अब सवर्णवाद के इस बहुमत को बनाए रखने के "हिंदूवाद" अपरिहार्य और अनिवार्य हो गया. हिंदूवाद को बनाए रखने के लिए समाज का बंटवारा जरूरी है। इसके लिए दुश्मन घोषित करने में श्रम भी न लगना था और ये ऐसी लड़ाई थी जो कभी खत्म भी न होनी ।
       हिंदुओं के गरीब मजदूर,किसान, अपढ़ तबके को ऊपर-ऊपर से लगता है कि मुसलमान ठिकाने लगाया जा रहा है, बल्कि ये पूरे प्रयास अपरकास्ट अमीरों को बचाने के लिए हैं, जिसे समझना एक धर्मभीरु आदमी के लिए आसान नहीं है. जिसका खून पिया जाएगा वह गरीब और कमजोर होंगे जोकि इस देश में अधिकतर खुद हिन्दू ही हैं. उनमें भी पिछड़े, आदिवासी वंचित, मजे करेगा कौन ? उंची जातियों का अमीर वर्ग ।जबकि उंची जातियों का गरीब भी नहीं,किसान, मजदूर भी नहीं।
       ये सारे प्रयास ऊंची जातियों के एकछत्र वर्चस्व को दोबारा से स्थापित करने के प्रयास हैं. जो वर्चस्व कथित नीची जातियों, कमजोरों, मजदूरों के बच्चों के यूनिवर्सिटियों में पहुंचने से धीरे धीरे ढीला होता जा रहा था. असल में इन्हें पढ़े लिखे उन ब्राह्मणों, राजपूतों, कायस्तों, बनियाओं से भी दिक्कत है जो इनकी जातियों, वर्णाश्रम व्यवस्था को नहीं मानते. जो भेदभाव के खिलाफ लगातार लिख रहे हैं, बोल रहे हैं।यही कारण है कि सरकार बनते ही सबसे पहले दिन से ही शिक्षण संस्थानों को सबसे पहले खत्म किया जा रहा है. इसी लिए फीस बढ़ाई जाती है, इसलिए प्राइवेटाइजेशन किया जाता है. ताकि  कमजोरों, दलितों, पिछड़ों के बच्चे स्कूल न पहुंच पाएं।जेएनयू पर हुए हमले को इसी दीर्घ परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है।
*बुघवार मल्टीमीडिया नेटवर्क