अन्य पिछडे वर्ग के विरूद्व षडयंत्र जारी

अन्य पिछडे वर्ग के विरूद्व षडयंत्र जारी
       
           कृष्ण देव सिंह
पटना।बर्तमान बिहार राज्य मगघ,अंगदेश,मिथिला और पूर्वाचंल के कुछ हिस्सों को मिलाकर बना है तथा इसका नामाकरण बौद्ध विहार के नाम पर रखा गया है।यहाँ मगही,मैथली,अंगिका और भोजपुरी भाषा बोली जाती है।अंग्रेजों के शासनकाल में यह बंगाल का हिस्सा था तथा इसकी राजघानी कलकत्ता थी।बिहार पूर्णतः कृर्षिप्रधान राज्य है तभा यहाँ की कुल आवादी की आघा से ज्यदा जनसंख्या अन्य पिछडे वर्ग की है ।अन्य पिछडा वर्ग (ओबीसी) की है जिन्हें दो भाग में अर्थात अति पिछड़ा वर्ग की अलग श्रेणीवद्ध किया गया है ।राजनैतक ,सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्ट्रि से बिहार अतिसंवेदनशील राज्य है तथा इस राज्य का नाम भारतीय इतिहास या यू कहें कि विश्व इतिहास में स्वर्णअक्षरों में अंकित है तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी।लेकिन यहाँ का भी अन्य पिछड़ा वर्ग कल अंग्रेजों के गुलाम थे, आज  चितपावनों के चेलों की अक्ल के गुलाम होने को  है।. शतरंज की बिसात पर एक एक करके वे अपने प्यादे  सामने रखते है और ओबीसी उनके प्यादों का शिकार पर भी पिछडों के  वजीर इनपर से नजर हटा लेते है.।इसी बीच चितपावनों के चेलों का वजीर ओबीसी  कबीले की टेंट उखाड़ ले जाता है।पिछड़े रोते-बिलखते-चिल्लाते रह जाते है।क्योंकि न कोई उनके पास मिशन है, न हीं कोई योजना है। पिछड़े सामाजिक और राजनीतिक जीवन के बंजारे की तरह हो गये है, ‘जहाँ सांझ-तहां बिहान’ में यकीन करने वाली आदतों से बाज नहीं आ रहेहैं.।
        ब्रिटिश राज की समाप्ति के बाद ओबीसी के पास कुछ नहीं था।अकेले संयुक्त बिहार में पिछड़ी जातियों में  लगभग १२०० अहीरों, ४००० कुर्मियों के पास, ७२ कोयरी के अलावा किसी के पास भी जमींदारी का लगान नहीं था।इसके उलट लगभग ३५००० भूमिहार, २४००० राजपूत, २०००० ब्राम्हण, ९००० कायस्थ के पास जमींदारी का लगान था। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री  श्रीकृष्ण सिंह बने।वे जाति से भूमिहार थे।उन्होंने जमींदारी प्रथा को समाप्त करने की घोषणा की। बच्चा-बच्चा पढ़ा कि देश में जमींदारी प्रथा को समाप्त करने वाला बिहार प्रथम राज्य बना लेकिन हकीकत इसके उलट रहा, जमींदारी प्रथा समाप्त तो हुई लेकिन जमींदारों की लगभग 5 प्रतिशत जमीने भी भूमिहीनों अथवा किसान-खेतिहरों के बीच नहीं बांटी गयी।
     श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्त्व में बिहार (बिहार) में सार्वजनिक उपक्रम की अनेक इंडस्ट्री खोला गया.. खनिज उत्खनन का काम शुरू हुआ, लेकिन इसमें अन्य पिछड़े वर्ग की भागीदारी-हिस्सेदारी नगण्य थी। यहाँ भी आरा-छपरा-पटना जैसे इलाकों के जमींदारों के बेटों ने कब्ज़ा जमा लिया.तब पिछड़ा वर्ग को लिखना पढना नहीं आता था।तो क्या पिछड़ों ने पढाई-लिखाई पर ध्यान दिया? हाँ, कुछ लोग पढाई कर रहे थे! लेकिन यह पढाई उनके काम की नहीं थी.और वे मात्र मजदूर बन कर रह गये।क्योंकि पिछड़ों की पढाई का स्तर इस लायक नही था कि झ्स वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित कर सके।लिहाजा जिन में योग्यता थी वो अपने वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित कराने का काम किया।स्थिति मात्र इसी से समक्षा जा सकता है कि आज झारखंड में जिन बिहार के लोगों की धाक है, जिन्हें वहां के लोग बाहरी कहने लगे है। उनमे ओबीसी के लोग नाममात्र के है और झारखंड के सारे माफिया, ठेकेदार ,नौकरशाह ,राजनेता प्रभु वर्ग के है.
पिछड़ों की पढाई का स्तर आज भी वैसा नहीं है कि बच्चे आगे चलकर बड़े वकील बन सके, अफसर बन सके.।फिर हिस्सेदारी कैसे मिलेगा?सिर्फ इंजिनियरिंग और मेडिकल के पीछे क्यों पड़े है?


           हिस्सेदारी कैसे मिलती है, उदहारण के तौर पर  कुछ दिन पहले रेलवे में वृंदावन फूड सप्लायर का मामला विवादों में था।उसने वैकेंसी निकाली थी कि सिर्फ ‘अग्रवाल चाहिए’। बिहार में दांत गिनने वाले कुछ दिनों के लिए जल संसाधन मंत्री बने थे, उनके विभाग में नब्बे प्रतिशत टेंडर उनके लोगों को मिलता है।राम मंदिर का ट्रस्ट बना, आपकी हिस्सेदारी जीरो है।जिनकी हिस्सेदारी है, वे परिसर की विधि-व्यवस्था संभालने के लिए टेंडर निकालेंगे तो  क्या लगता है? पिछड़ों को टेंडर हासिल होगा?लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री यादववाद के कारण मुख्यमंत्री नहीं बने थे?उनके पीछे ओबीसी की तमाम जातियों की ताकत थी .यादव लड़ाकू समाज है ।पर कितना न्यायप्रिय है ? लालूजी के शब्दों में ओबीसी का इंजन है लेकिन लालूजी ने बिहार में सत्ता के दौरान  ‘साझेदारी में स्थायित्व’ के लिए कुछ ऐसा नहीं किया जिसे याद किया जा सके ।यह अलग बात है कि यादवों ने उनसे जुड़कर और अपने कथित जुझारूपन से बहुत कुछ हासिल कियालेकिन लालू यादव यही पर हार बुरी तरह गये?वे पुरे देश में पारिवारवाद,भ्रष्टाचारवाद, जातिवाद और फुहड़वाद के प्रतीक बनकर रह गये है।


      फिर नीतीश कुमार आये।५-१० अफसर बाहर से लाये गये ताकि सरकार की चुनरी में दाग न लगे लेकिन इनमें से २-४ की जाति कुर्मी भी था। इन अफसरों ने बिहार को संभाला।लालू खेमे ने हल्ला किया कि जातिवाद हो रहा है।जबकि हकीकत यह है कि ऐसे अफसरों से भी लाभ ओबीसी की जगह रजनीगंधा खाने वाले के चेलों ने ही लिया।आज नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के रूप में राज्य भर में घुमते है।काश! नीतीश कुमार ने १००-२०० ओबीसी के पट्ठे (ठेकेदार, कंपनी)और मध्यम संस्थान  तैयार किये होते तो यह सूरत नहीं बनती। हिस्सेदारी की बात हुई तो पंचायतों में जरुर अच्छा काम किया लेकिन आज भी ५० करोड़ से अधिक की हैसियत वाले ठेकेदार, कंपनियों में ओबीसी का हिस्सा ५ प्रतिशत से अधिक नहीं है।माध्यम संस्थानों के नाम पर एक्का दुक्का लघु संस्थान है लेकिन नीतीश सरकार की नजरे से वे ओक्षल ही रहते है।पत्रकारिता और न्यायपालिका मे भी पिछड़ों का नाम मात्र का प्रतिनिधित्व है।  अब सारा खेल आउटसोर्सिंग का है।जब पिछड़ों को यहाँ टेंडर ही नहीं हासिल होगा तो उनकों रोजगार कैसे मिलेगा? उदहारण के लिए पटना रेलवे स्टेशन की साफ़-सफाई का ठेका आर के सिन्हा की कंपनी एसआईएस का है, इसमें साफ़-सफाई करने वाले दलित है।लेकिन कलम के काम में कितने ओबीसी की भागीदारी होगी?
       अन्य पिछड़ा वर्ग का पक्षघर होने का दम्भ समाजवादी पार्टी भी भरती रही है लेकिन सपा के प्रभाववाली उत्तरप्रदेश मे तो पिछड़ो का हाल और भी बुरा है।सपा बिहार और मध्यप्रदेश में भी राजनीतिक और यादववादके टांग फसाती रहती है 1 वैसे सपा की छवि फिल्मी और मौकापरस्त दल के स्प में ज्यादा है। रजनीतिक दृष्टि से सबसे अविशसनीय राजनीतिक परिवार है i लेकिन मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री बने तो उन्हें समर्थन करने वाले विधायकों में कुर्मियों की संख्या सबसे अधिक थी लेकिन वे ओबीसी के कितने पट्ठे (ठेकेदार, कंपनी) तभा माध्यम संस्थान तैयार किये ?इसको उतर प्रदेश केपिछडे वर्ग  लोग और कम से कम कुर्मी जाति के लोग अच्छी तरह जानते है ।वे सैफैईं में नचानियां नचाने में ही अपना शौर्य प्रदार्शित करते रह गये i हाँ वे भी परिवारवाद और जातिवाद के मसिहा जरूर बन गये और अपने समधी लालूजी से ज्यादा चतुर = चालाक निकलेi दरअसल इन दोनों यादवों ने सामाजिक न्याय के नाम पर भरपुर राजनीतिक रोटियां सेककर पिछडे वर्ग को गर्त में डालने में कोई कसर शेष नही रखा  ।         
              मैं ठेकेदार, पट्ठे, कंपनी पर जोर क्यों दे रहा हूँ? इसे समझिये.. बिहार के राजनीतिक विमर्श को तय करने वालों में जिन मीडिया संस्थानों, कार्यक्रमों का योगदान होता है। उसके लिए धन की आवश्यकता होती है, यह धन कहाँ से आता है ? यह धन डिब्बा देकर चंदा मांगने से नहीं आता है।यह धन आता है टेंडर हासिल करने से, बालू की ठेकेदारी करने से क्योंकि यह ‘छोटा क्रोनी कैपिटलिज्म’ है।नीतीशजी की पार्टी में बकैती करने वाले प्रवक्ताओं का स्वार्थ क्या है ? वे साल में लाखों का पोस्टर लगाते है।करोड़ों का टेंडर हासिल करते है। आप पिछड़े कहाँ है? आपके पास कुछ लोग हो भी तो आपकों कौन पूछता है? कुर्मियों के राज्यसभा वाले  को भी फूटी आँख सुहाते है क्या?यहीं स्थिति है।आवश्मकता योजना बनाने की है। हर धंधे में जाना होगा।शिक्षा में, ठेकेदारी में,माध्यम में, नौकरी में। दीर्घकालीन योजना बना कर तैयारी करनी होगी।उपजाति में शादियाँ करना होगा।  अपनी ही जाति की विभिन्न उपजातियों में शादियाँ उसी तरह करें जैसे प्रभु वर्ग करता है। तब आप मुकाबले में आयेगे!
*बुघवार मल्टीमीडिया नेटवर्क