अकेले जूझने को मजबूर हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया

अकेले जूझने को मजबूर हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया


*बुघवार समाचार
भोपाल ४मार्च२०२०.मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने हुए 14 माह से अधिक का समय हो गया है लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी में  अध्यक्ष का फैसला नहीं हो पा रहा है। कमलनाथ मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की दोहरी भूमिका में हैं। लेकिन इधर ऐसा लगने लगा है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं कांग्रेस के महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया खुद की लड़ाई खुद की पार्टी में लड़ने को मजबूर हो रहे हैं? जिन चेहरों को उन्होंने कमलनाथ सरकार में मंत्री बनवाया है उनमें से कई ऐसे हैं जो अपनी कार्यशैली या बयानों के कारण अपने नेता को मजबूत करने की जगह  ऐसे हालात पैदा कर देते हैं जो उन्हें असहज परिस्थितियों में डाल देते है। ऐसा भी आभास होता है कि  अनेक मंत्री एक सुगठित टीम के स्थान पर अपनी ढपली, अपना राग अलापने लगते हैं। मुख्यमंत्री कमलनाथ कांग्रेस का जनाधार बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं और वे दलितों-आदिवासियों का मन मोह लेने का कोई अवसर नहीं जाने दे रहे हैं तो वहीं  औद्योगीकरण की दिशा में भी आगे बढ़ रहे हैं।
           प्रदेश प्रभारी महासचिव दीपक बाबरिया को गुटों व धड़ों में बंटी कांग्रेस में समन्वय स्थापित करने के लिए हाईकमान ने उनकी अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की है। देखने वाली बात यही होगी कि बाबरिया मंत्रियों व कांग्रेसजनों के बीच कितना समन्वय स्थापित कर पाते हैं? अभी तक तो मंत्रिमंडल के सदस्यों को बाबरिया की सीख और नसीहत का उन पर प्रभाव नहीं हुआ है।
        प्रदेश की राजनीतिक हलकों में  इंतजार किया जा रहा है कि सिंधिया की पार्टी के अन्दर की भूमिका का उसके बाद ही प्रदेश में कांगे्रस की राजनीतिक दिशा व दशा स्पष्ट हो सकेगी। वैसे सिंधिया तथा पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद के सशक्त दावेदार के रुप में उभरे हैं । भाजपा को  सत्ता को उखाड़ने में सर्वश्री कमलनाथ ,और ज्योतिरादित्य सिंधिया के अतिरिक्त अजय सिंह राहुल की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है,जबकि पर्दे के पीछे प्रदेश में जमावट करने एवं  कांग्रेसजनों को एकजुट करने के सूत्र दिग्विजय सिंह के पास थे। कमलनाथ की ताजपोशी मुख्यमंत्री के रुप में हो चुकी है और अब कांग्रेस हाईकमान को सिंधिया , दिग्विजय सिंह तथा अजय सिंह की भूमिकाओं के बारे में अपने पत्ते खोलना शेष है जो राज्यसभा चुनाव में प्रत्याशियों के चयन से अधिक साफ होगी। जहां तक राज्यसभा की उम्मीदवारी का सवाल है इनमें से किसी की भी उपयोगिता को कांग्रेस की राजनीति में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जहां तक प्रदेश अध्यक्ष का सवाल है सिंधिया समर्थक कुछ मंत्री समय-समय पर उन्हें प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपे जाने की मांग करते रहते हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरती देवी तो कई मर्तबा इस तरह की मांग कर चुकी हैं। अन्य मंत्री जिनमें तुलसी सिलावट, गोविन्दसिंह राजपूत, प्रद्युम्न सिंह तोमर भी उन्हें अध्यक्ष पद सौंपने की मांग करते रहे हैं।लेकिन उनकी मांग से सिंधिया प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनेंगे, लेकिन लगता है वे अपने नेता की नजर में चढ़ने के लिए समय-समय पर ऐसी मांग करते रहते हैं। जहां तक सिंधिया की भावी भूमिका का सवाल है वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी, महासचिव प्रियंका गांधी मिलकर करेंगी और उन पर किसी प्रकार की लॉबिंग का कोई असर नहीं पड़ेगा। सिंधिया खुद गांधी परिवार के करीबी माने जाते हैं।फिर भी सिंधिया जी प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के अंदर स्वयं की लड़ाई अकेले लड़ते नजर आ रहे हैं और उनके समर्थन से जो लोग मंत्री बने हैं उनमें से एक-दो को छोड़कर अधिकांश न तो प्रशासन पर और न ही प्रादेशिक राजनीतिक फलक पर अपनी कोई छाप छोड़ पाये हैं, न ही उन्होंने समूचे प्रदेश में दौरा कर अपना स्वयं का प्रभाव छोड़ने की कोशिश की है। तुलसी सिलावट और गोविंद सिंह राजपूत को छोड़ दिया जाए तो कोई अन्य समर्थक ऐसा कुछ विशेष करता नजर नहीं आ रहा जिससे सिंधिया को अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने में मदद मिले।  
       कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया इस्तीफे की अफवाह फैलती है। कभी पूर्व नेता प्रतिपक्ष का दर्द छलकता है, तो कभी कांग्रेस के अन्य नेता कहते नजर आते हैं कि उनकी ही सरकार में उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। मुख्यमंत्री कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष का पद छोडऩा चाहते हैं, लेकिन किसी दूसरे को अभी तक कमान नहीं सौंपी जा सकी है। निगम-मंडलों के पद खाली पड़े हैं। नगरीय निकाय अधिकारियों के हवाले कर दिए गए हैं। कंप्यूटर बाबा रेत खदानों पर जाकर डंपर जब्त करते हैं, खनिज मंत्री कहते हैं कि उन्हें कई जगह वो गलत हैं। ग्वालियर में एक मंत्री को काम शुरू करने अदने से अधिकारी के पांव पकडऩे पड़ते हैं।मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के साथ ही जब से मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कार्यभार संभाला है, वह सब कुछ ठीक करने की कोशिश ही तो कर रहे हैं। पंद्रह साल के दौरान पिछली सरकार ने जो भी किया, वह पूरा गलत था या सही था, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन सरकार को वित्तीय अव्यवस्थाओं के गर्त में तो धकेल ही दिया गया था। अब सबसे पहले तो मुख्यमंत्री को प्रदेश को उस गड्ढे में से निकालने की कोशिश करनी थी, सो कर ही रहे हैं। एक साल से वह प्रदेश संगठन की कमान भी छोडऩा चाह रहे हैं, लेकिन किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन पा रही है और न ही हाईकमान निर्णय ले पा रहा है। इसके इतर सरकार में जो निगम-मंडलों में अध्यक्ष-उपाध्यक्ष की नियुक्तियां, सहकारी संस्थाओं में संचालक मंडल के चुनाव भी नहीं कराए जा सके हैं। इसके चलते कांग्रेस के अंदरखाने में नाराजगी का माहौल अलग बन रहा है। 
    इस बीच राज्यसभा चुनाव घोषित हो गए। विधानसभा चुनाव में कमलनाथ, दिग्विजय और सिंधिया की तिकड़ी 
की भूमिका प्रमुख मानी जा रहा है, लेकिन इस तिकड़ी के सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया सरकार बनने के बाद से कोई अहम भूमिका न मिलने से नाराज ही चल रहे हैं। वह जब-तब अपनी नाराजगी का इजहार भी खुलकर कर देते हैं, यह भी सरकार के लिए परेशानी का सबब तो है ही। पिछले कुछ दिनों से उनका एक बयान रिपीट भी हो रहा है कि यदि वचन पत्र का पालन नहीं हुआ, तो वह सड़क पर उतरेंगे, इसने कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में खासी हलचल पैदा करके रखी हुई है। प्रदेश अध्यक्ष के लिए सिंधिया का नाम चला, तो उन्होंने स्वयं भी इंकार कर दिया, लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह भी मुद्दा बना ही हुआ है, अब राज्यसभा के लिए भी उनका नाम सामने आ गया है। असल में जब से वह लोकसभा चुनाव हारे हैं, किसी बड़ी जिम्मेदारी के लिए उत्सुक हैं, लेकिन वह मिल नहीं पा रही है। इसके साथ ही प्रदेश में अपने समर्थकों के लिए निगम मंडलों में पद चाह रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए भी अपनी ओर से एक समर्थक का नाम दिया हुआ है। वैसे कहा तो यह भी जा रहा है कि सिंधिया को उपमुख्यमंत्री का पद देने की पेशकश हुई थी, उसे स्वीकार कर लेते तो बेहतर होता। राजनीति में छोटा पद लेने से इंकार करना बड़ी भूल माना जाता है।   
सरकार को समर्थन देने वाले केवल एक निर्दलीय को मंत्री बनाया जा सका, सपा विधायक के साथ ही एक निर्दलीय विधायक और हैं, जो जब-तब सरकार गिराने की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष धमकी देते रहते हैं। हालांकि हाल में कांतिलाल भूरिया के उपचुनाव जीतने के बाद कांग्रेस स्पष्ट बहुमत पर पहुंच गई है, लेकिन फिर एक सीट उसकी खाली हो गई। अब दो उपचुनावों की चुनौती फिर सामने है। इधर पंचायत चुनाव और नगरीय निकायों के चुनाव सामने हैं। पंचायत चुनाव की प्रक्रिया तो शुरू कर दी गई है, लेकिन इसके चलते नगरीय निकाय चुनाव टाल दिए गए हैं।यह भी कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को नागवार गुजर रहा है। हाल में पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल ने अपना दर्द बयान किया है कि सरकार में उनकी ही बात नहीं सुनी जा रही है। अधिकारी बात नहीं सुनते। 
        कमलनाथ के साथ ही प्रदेश के प्रभारी महासचिव दीपक बावरिया भी बीच-बीच में असंतोष को थामने की कवायद करते रहते हैं। सत्ता परिवर्तन के साथ जब राजनीतिक विचारधारा बदलती है, तब सरकार और प्रशासन के बीच समन्वय बैठाना सबसे मुश्किल होता है। पदस्थापनाओं, तबादलों का दौर भी कुछ ज्यादा तेज चलने लगता है। यही कारण है कि जहां एक ओर संगठन के लोगों में नाराजगी होती है तो दूसरी ओर प्रशासन में भी कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना पैदा होने लगती है। और इसका लाभ उठाते हुए विपक्ष हमलावर हो जाता है। संगठन को संभालने  बावरिया जुट जाते हैं और प्रशासन में बैठे अधिकारियों की सोच बदलने में जुटे हैं मुख्यमंत्री कमलनाथ। प्रयासों का दौर जारी है और व्यवस्थाओं में परिवर्तन भी हो रहा है। वचन पत्र के मुद्दों पर अमल भी चल रहा है, भले ही उसकी गति कुछ धीमी दिख रही हो। किसानों की ऋण माफी से लेकर प्रदेश में औद्योगिक वातावरण बनाने की कोशिशों में कुछ सफलता के संकेत भी मिल रहे हैं। इस चक्रव्यूह में हैं मुख्यमंत्री कमलनाथ। लेकिन वह अभिमन्यु के बजाय अर्जुन बनकर इसे वेध कर बाहर निकलने को आतुर भी दिखाई दे रहे हैं। प्रयासों का दौर जारी है, आत्मविश्वास और कुछ सफलताओं के साथ।
*बुघवार बहुमाध्यम समुह