क्वारंटीन बनाम सूतक.. भारतीय परंपराओं के आइने में..

क्वारंटीन बनाम सूतक.. भारतीय परंपराओं के आइने में..
संजय सक्सेना 
कोरोना के संक्रमण से बचने के लिए जिस तरह से आइसोलेशन और क्वारंटीन का प्रयोग हो रहा है, असल में यह कोई नई बात नहीं है। एक बुजुर्ग ने जब हमारी कुछ परंपराओं की सही समीक्ष की तो पता चला कि जिन परंपराओं को आधुनिक वैज्ञानिक और आधुनिकता ओढऩे वाले अंधविश्वास कहते आ रहे हैं, जिन्हें बेवजह बताया जाता रहा है, उनमें से अधिकांश वैज्ञानिक हैं और उनकी उपयोगिता धीरे-धीरे सामने आती जा रही है। 
बुजुर्ग ने आइना दिखाया तो पता चला कि भारतीय संस्कृति में मान्य जीवनशैली के अंग के रूप में जन्म से मृत्यु तक एक अवधि को सूतक के रूप में प्रयोग किया जाता है, असल में वही आज का क्वारंटीन है। क्वारंटीन शब्द मूलत: लैटिन भाषा का शब्द है। शब्दकोशों और ज्ञानकोशों के अनुसार इसका शाब्दिक अर्थ वैसे तो 'चालीसÓ है पर इसका व्यावहारिक अर्थ संक्रामक रोगों से ग्रसित या ऐसे रोगियों के संपर्क में आए लोगों के घूमने-फिरने, औरों से संपर्क में आने या घुलने-मिलने को सीमित या प्रतिबंधित करने से लिया जाता है। हिंदी में इसका अर्थ संगरोध बताया जाता है। 
भारतीय परंपराओं की बात करें तो यहां बच्चे के जन्म के समय ऐसा ही सूतक लागू करके नवजात शिशु और प्रसूता स्त्रियों को अलग कक्ष में रखकर पूरे एक मास तक नवजात और माता को किसी भी संक्रमण से बचाने की पूरी प्रक्रिया आज भी मान्य और प्रचलित है। इस दौरान कई प्रकार की औषधियों से युक्त जल से जच्चा-बच्चा का स्नान और शुद्धीकरण किया जाता है। पूरे महीने के क्वारंटीन में मां और शिशु, दोनों का खान-पान सब कुछ अलग होता है। 
इसी तरह मृत्यु के बाद तेरह दिनों के सूतक की हमारी परंपरा रही है। शव में रोगाणु हो सकते हैं। अत: अंतिम क्रिया करने वाले व्यक्ति का तेरह दिनों तक बिल्कुल अलग कक्ष में रहना, जिस परिवार में किसी की मृत्यु हुई उस परिवार से कम से कम 10 दिनों तक केवल जरूरी संपर्क रखना, सामाजिक आवाजाही रोक देना अर्थात् सूतक बरतना आवश्यक माना जाता है। आठ या दस दिन में जब शुद्धि की जाती है, तब बाहरी लोगों का अंदर आने दिया जाता है। इन दिनों में घर-परिवार में कोई धार्मिक पूजा या अनुष्ठान नहीं होते। परिवार के लोगों का मंदिरों में जाना या पूजा-पाठ करना भी वर्जित होता है। जिस घर में मृत्यु सूतक होता है, वहां अन्य लोग अन्न-जल नहीं ग्रहण करते। गंभीर बीमारी की दशा में भी बीमार व्यक्ति को अलग-थलग रखने और उसके उपचार में लगे व्यक्ति को भी अन्य लोगों से दूर रखने की हिदायत का पालन आज भी भारतीय जीवनशैली में अनिवार्य है। बीमारी के दौरान और पूजा-पाठ के लिए सदा धुले हुए और साफ कपड़े पहनना जरूरी है। बीमार या संक्रमित व्यक्ति के वस्त्रों और बिछावन को बदलते रहना जरूरी है। और भी कई परंपराएं रही हैं, जो पूरी तरह से वैज्ञानिक थीं, परंतु उन्हें कुरीतियों के साथ जोड़ कर बंद कर दिया या आज लोग मानते नहीं हैं। आज कोरोना को लेकर क्वारंटीन की बात कही जा रही है, तो यह वैज्ञानिक मामला हो गया। हमारी अधिकांश परंपराएं आज किसी न किसी रूप में वैज्ञानिक प्रमाणित हो चुकी हैं। हम इनका गहन अध्ययन नहीं करते, न ही उन कारणों पर दृष्टि डालते हैं, जिनके चलते ये परंपराएं शुरू की गईं। जब दूसरी दुनिया के लोग कहते हैं, हम तभी मानते हैं, लेकिन पीछे मुड़कर भी देखें तो पता चलता है कि केवल शब्द ही अलग है, हम इन उपायों का अन्वेषण पूर्व में ही कर चुके हैं, बस समझने और अपनाने की आवश्यकता है। 
वुधवार  समााचार सेवा